जॉन बाल्टन -1

करीब-करीब सभी मिडिया हॉउस ने जॉन बाल्टन की किताब को पूरा पढ़ लिया, मैं सिर्फ पहला चैप्टर पढ़ पाया हूं, जिसमें ट्रम्प के आने के बाद, किस प्रकार बाल्टन सहित अन्य अधिकारियों का चयन किया गया, इसपर प्रकाश डाला है. अमेरिका के सुरक्षा और विदेश से जुड़े मामलों में राजनीतिक हस्तक्षेप नगण्य होता है इसलिए इन पदों पर चुने जाने वाले लोगों की हैसियत भारत के कबिनेट मिनिस्टरों जितना होता है. इसलिए भारत और अमेरिका में इन चुनावों का तुलना फायदेमंद होगा, पर इसपर लिखूंगा किसी दूसरे पोस्ट में, अभी के लिए इतना समझिये कि एस जयशंकर का विदेश मंत्री के रूप में और पूर्व सेनाध्यक्ष वीके सिंह का पहले कार्यकाल में विदेश राज्यमंत्री के रूप में चयन होना, जिसमें उन्होंने भारतियों को इराक-सीरिया से एयरलिफ्ट करने में अहम भूमिका निभाई, फिर दूसरे कार्यकाल में(2019) वीके सिंह को सड़क एवं परिवहन राज्य मंत्रालय देना जिसके कारण रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण सड़कों-पूलों के निर्माण में अभूतपूर्व तेजी आई, ये सब भारतीय राजनीति में आये पेशेवर बदलाव का ही द्योतक है.

पहले देखते हैं कि बाल्टन को एनएसए की जिम्मेदारी देने से पहले, ट्रम्प ने बाल्टन के दिए सुझाव पर कितना अमल किया था.

एनएसए बनने से पहले भी, बाल्टन का व्हाइट हॉउस आना-जाना लगा रहता था और ट्रम्प बहुत से मुद्दों पर बाल्टन का सुझाव लेते रहते थे पर अंतिम फैसला ट्रम्प का ही होता था. इस तरह, जेरूसलम को इजराइल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के पीछे, बाल्टन का ही सुझाव था.

उत्तर कोरिया के मसले पर, ट्रम्प ने बाल्टन के सुझाव को नकारा. दरअसल बाल्टन का मानना था कि न्यूकिलियर हथियार संपन्न उत्तर कोरिया ना सिर्फ अमेरिका के लिए बल्कि विश्व के लिए खतरा है. इसके तीन कारण हैं, पहला, उत्तर कोरिया दूसरा चीन बन जायेगा. दूसरा, नयूक्लेअर शक्ति हासिल करने के बाद वह दक्षिण कोरिया और जापान को अमेरिका के खिलाफ ब्लैकमेल कर सकता है और तीसरा, चुकि दक्षिण कोरिया ने बार-बार कहा है कि वह पैसों के लिए किसी को कुछ भी बेच सकता है. इसलिए जिस प्रकार पाकिस्तान ने अपने न्युकिलर फोर्मुले को ईरान और उत्तर कोरिया के साथ साझा किया, यही कार्य उत्तर कोरिया भी कर सकता है. पर इस सब के पीछे चीन है क्योंकि चीन ने पहले पाकिस्तान को न्युकिलर हथियार उपलब्द करवाए थे. फिर पाकिस्तान ने यही काम उत्तर कोरिया और ईरान के लिए किया. फिर नार्थ कोरिया, इराक में न्युकिलर रेअक्टर पर कार्य कर रहा था, जिसे ईरान ने फंड किया था. यदि 2007 में इजराइल ने उस अधूरे रिएक्टर को इराक में ध्वस्त ना किया होता तो आज विश्व का हरेक तानाशाह पाकिस्तान की तरह न्युकिलर हथियार से लैस होता और हर दिन इमरान खान की तरह धमकी दे रहा होता.

बाल्टन के अनुसार नार्थ कोरिया पर सैन्य कारवाई करने की अमेरिका(ट्रंप) की बातें हवा हवाई थी, क्योंकि इसके लिए किसी प्रकार का मिलिट्री तैयारी कभी नहीं की गयी. पर बाल्टन सैन्य करवाई के पक्षधर थे, लेकिन उन्हें धक्का तब लग जब ट्रम्प ने फरवरी(2018) में नार्थ कोरिया के तानाशाह से मिलने का न्योता स्वीकार कर लिया.

ईरान के रिव्लुशनरी गार्ड को आतंकवादी संघठन घोषित करने के और यूएन के रिलीफ फंड में अमेरिका की हिस्सेदारी कम करने  पीछे बाल्टन का ही सुझाव था.

दूसरा झटका बाल्टन 2018 में ही लगा जब रूस के एक पूर्व खफिया अधकारी और उसके परिवार पर, रूस ने रासायनिक हथियार से हमला कराया, जिसके जवाब में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने रूस के कुछ अघोषित ख़ुफ़िया अधिकारीयों को इंग्लैंड से निकाल दिया. पर ट्रम्प ने उल्टे पुतिन को फिर से रूस का राष्ट्राध्यक्ष बनने को लेकर बधाई देना उचित समझा, वो भी गुप-चुप तरीके से जो बात मिडिया में लीक हो गयी. जिसके बाद NATO देशों को दिखाने के लिए, ट्रम्प ने रूस के कुछ राजनयिकों को अमेरिका से निकाल दिया.


इसके अलावे,  मिडिल-ईस्ट एसिया में अमेरिका के हस्तक्षेप को लेकर भी ट्रम्प, बाल्टन से सुझाव लेते थे.  ख़ास बात यह है कि ट्रम्प, बाल्टन के एनएसए बनने से पहले से उसने सुझाव लेते रहते थे.

एक चैप्टर पढ़ कर ही बहुत कुछ स्पष्ट नहीं होगा पर इतना तय है कि कई मुद्दों पर असहमति होने के वाबजूद ट्रम्प ने बाल्टन को एनएसए बनाया, जबकि वो पहले बाल्टन को सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट बनाने वाले थे. लेकिन बाल्टन इन दिनों मिडिया में कहते पाए जाते हैं कि ट्रम्प हमेशा 'यस मैन' से घिरे रहना पसंद करते हैं, लेकिन खुद बाल्टन का एनएसए के रूप में चुनाव बताता है कि उनके दावों में उतनी सच्चाई नहीं है.

इस सब से हट कर यदि तथ्यों पर भी ध्यान दें तो पता चलता है कि जब ट्रम्प का कार्यकाल शुरू हुआ था उस वक्त ओबामा द्वारा चयनित सुजैन राइस एनएसए थी. यदि ट्रम्प 'यस मेन' एडिक्ट होते तो राष्ट्रपति बनते ही सुजैन को हटा देते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

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