अर्थ अनर्थ : केन्या से अनाज आया

मुझे लगता है, देने वाले का भाव क्या है, ये देखा जाना चाहिए। भाव को देखने-परखने के बाद भी, केन्या के विषय पर एकमत होना संभव नहीं है। ऐसा हरेक विषय के साथ होता है। शायद यही लोकतंत्र होगा। जैसे कि मुझे ही केन्या के बारे में रत्ती भर मालूम नहीं है, फिर भी लिखने की हिम्मत कर रहा हूं।

थोड़ा रियलिस्टिक होते हैं। 2018 में केरल में आये बाढ़ को याद कीजिये, जब मोदी जी ने, मनमोहन के जमाने में बनाये गए नियम का हवाला देते हुए, मध्य-एशिया से आने वाले मदद पर रोक लगा दी। आजादी के बाद, एक वो दिन भी था जब भारतीय उस चावल के दाने पर गुजारा करने को विवश थे जिसका उपयोग अमेरिका के मुर्गीफार्म में होता था।

मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने पर क्या भारत इतना स्वाभिमानी हो गया कि विदेशी मदद को नीतिगत अश्विकार्यता मिल गयी? हालांकि नीति तब भी यही रही कि भारत किसी देश से मदद की अपील नहीं करेगा, पर यदि कोई देश मदद करना चाहता है तो यह भारत सरकार पर निर्भर है कि वो मदद को स्वीकार करती है या नहीं।

हो सकता है कि स्वाभिमान वाली बातें सच हो, पर एक ओर यदि सरकार ने विदेश से आने वाली मदद पर रोक लगाई तो दूसरी ओर हजारों NGO, ईसाई मिशनरियों और रेडक्रॉस जैसी संस्थाओं के जरिये विदेशी मदद का फ्लो बढ़ गया। यदि सरकार को किसी से फंड मिलता है और फिर सरकार ही उसे खर्च करती है तो भ्रष्टाचार को उतना स्कोप नहीं होता जितना NGO के जरिये होता है। ऊपर से सरकार के खर्चे की स्क्रूटनी नियंत्रक और महालेखा समीति बखूबी करती है, जबकि NGO पर सरकार या खुद CAG का प्रयाप्त नियंत्रण नहीं होता। ईसाई मिशनरियों का भी अपना समीकरण है।

हां, रेडक्रॉस अपने साख के खिलाफ शायद ही जा पाए। क्योंकि इस संस्था को सबसे अधिक तीन बार नोबेल पीस प्राइज मिल चुका है।

ख़ैर, मोदी ने आते ही NGO पर सिंकजा कसना शुरू किया। ले दे कर बच गए ईसाई मिशनरी और रेडक्रॉस जैसी संस्थाएं, जिसे मुख्य रूप से यूरोप से ही मदद मिलती है। कोई मध्य एशिया का देश इन्हें क्यूं मदद देगा? पर यदि कोई मदद करना चाहता है तो रेडक्रॉस के जरिये कर सकता है।

जब यूएई द्वारा 700 करोड़ रुपये के मदद का हल्ला हुआ, उस समय केरल के मुख्यमंत्री, वहां की जनता और शेष भारत में भी लोगों को लगा कि मदद स्वीकार करनी चाहिए। पहले केंद्र सरकार ने, फिर खुद यूएई ने ऐसे किसी मदद की बात को अश्विकार कर दिया।

भारत ने उस वक्त यूरोपियन यूनियन सहित कई देशों का एहसान लेने से मना कर दिया था। जी हां, एहसान ही। क्योंकि ये मदद फ्री में नहीं आते। कहावत है कि देयर इज नो फ्री लंच इन दिस वर्ल्ड। कोई यदि आपकी मदद कर रहा है तो उसके बदले में कुछ अपेक्षा रखता है। जिओ-पोलटिक्स में ये अपेक्षाएं कई बार नेशनल सेक्योरिटी, यूएन में किसी मुद्दे पर वोटिंग, अव्यवहारिक व्यापार संधि आदि को लेकर होती हैं।

केन्या के बारे में मुझे नहीं मालूम, यदि इस देश ने अनाज भेजा है तो उसकी क्या अपेक्षाएं रही होगीं। क्या को वो अपेक्षाएं, भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा या अंतराष्ट्रीय स्तर पर किसी मुद्दे पर प्रभाव डालेगीं?

बांकी भावना, छोटा-बड़ा होना, कम-बेसी देना आदि अपनी जगह है। गांधी जी जब राष्ट्रीय आंदोलन के लिए चंदा इकठ्ठा कर रहे थे तो कितने ही महिलाओं ने उन्हें अपने आभूषण दे दिए। लेकिन जब कोई कद्दू-कदिम्मा लेकर आता था तो गांधी जी उसे मना नहीं करते थे।

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