लालू की जाति

''दुश्मन जैसा हो देश, समाज, धर्म या किसी जाति को उसी आधार पर संगठित होने की जरुरत होती है.'' वामपंथी राजनीतिक विश्लेषक सदानंद सहनी अपनी पुस्तक 'गिरमिटिया मजदूर ऑफ़ बेगुसराय' में बताते हैं कि जब पूरे विश्व में पूंजीपतियों ने शोषण करने को अपना हथियार बनाया तो मार्क्स ने कहा, ''दुनियां के मजदूरों एक हो जाओ''. यहां दुश्मन पूंजीपति वर्ग था तो उसके खिलाफ मार्क्स ने मजदूरों और गरीबों को एक होने को कहा. इसी तरह जब दो देशों के बीच युद्ध होता है तो जीतता वही देश है जो अपने अंदर की तमाम विभन्नता मिटा कर युद्ध के समय एक हो जाए. अन्यथा युद्ध जीत कर भी कई देश हार जाते हैं. इसका उदहारण देते हुए लेखक कहते हैं कि यदि जर्मनी का क्रूर तानाशाह हिटलर ने जर्मनी के यहूदियों को अपने में मिला लिया होता तो शायद दूसरे विश्वयुद्ध की कहानी कुछ अलग होती. अम्बेडकर ने भी यही किया. दबे, कुचले लोगों को ही तो धनाढ्य और कथित उंची जाति के लोगों के विरुद्ध एकत्रित होने को कहा. पर लालू प्रसाद यादव ने इस सबसे अलग एक अजीब राजनीतिक प्रयोग किया है जिसका खामियाजा बिहार को वर्षों तक भुगतना होगा. हो सकता है बिहार विकास की पटरी पर आगे ना बढ़ पाए. शिक्षा, उद्योग, खनन में जो कुछ भी बिहार के पास है सब चौपट हो जाए.


कमाल की बात यह है कि सदानंद सहनी ने यह सब तब लिखा था जब लालू जी ने जातीय संघर्ष को बढ़ाने के उद्देश्य से 'भूरा बाल साफ़ करो' का नारा दिया था. हलाकि इस नारे से खुद लालू भी अब पल्ला झाड़ते हैं.

सदानंद सहनी लिखते हैं कि लालू ने राज्य के जनता के सामने एक समान्य सा समीकरण रखा जो सत्ता तक पहुंचने के लिए एक बेजोर गणितीय फ़ॉर्मूला था. इसके लिए उन्होंने ने अपने पार्टी के झंडे का रंग हरा कर लिया जिससे मुस्लमान लालू से जुड़ सकें पर बिना 'यादवों' के लालू का यह फ़ॉर्मूला काम नहीं करता. यहां लालू के साथ दिक्कत हुयी कि उनके नाम के पीछे 'यादव' नहीं लगा था.  लालू के पिता का नाम कुंदन 'राय' था इसलिए लालू के नाम में भी 'राय' होना स्वाभाविक था. पर बिहार और उत्तरप्रदेश में अधिकतर भूमिहार भी अपने नाम के पीछे 'राय' लगाते हैं. पर लालू ने इसका तोड़ भी निकाल लिया. उन्होंने अपने नाम से 'राय' हटा कर 'यादव' लगा लिया. और इसतरह एक सटीक समीकरण तैयार हो गया जिसमें बिहार के 15 प्रतिशत मुसलमान और लगभग उतना ही यादव.


बिहार एक तरफ जातियों में बंट गया तो दूसरी तरफ मुसलमानों का एकमुश्त समर्थन लालू को जाने लगा. उधर उत्तरप्रदेश में भी यह फ़ॉर्मूला पहले से ही हिट था. लालू 'राय' से लालू 'यादव' तक के सफर ने बिहार का खूब नुकसान कराया. लोग बिजली, सड़क, शिक्षा आदि पर बात करना तो दूर उस सब के बारे में सुनना भी पसंद नहीं करते थे. गावों में अगल-बगल रहने वाले पड़ोसियों में अब जाति घर कर गई थी. एक 20-30 घर के गांव में 2-2 क्रिकेट के टीमें शुद्ध रूप से जाति आधारित होती थी. हाजीपुर जैसे जगहों पर यादवों ने राजपूतों पर कहर बरसाना शुरू कर दिया.


सदानंद सहनी बताते हैं कि यादव, बिहार और उत्तरप्रदेश में हमेशा से एक उंचा स्थान रखते थे पर लालू ने बेवजह बिहार में उन्हें 'भूमिहारों-राजपूतों-ब्राह्मणों-लाला' का दुश्मन बना दिया. इस सबमें मल्लाह, मुसहर, धानुक जैसी निचली जातियों की आवाज दब कर रह गयी और शायद सामाजिक न्याय की सबसे अधिक जरुरत भी इन्हें ही रही. क्योंकि यादवों के पास हमेशा से एक कारोबार पर एकछत्र राज था और जमीन भी खूब था पर निचली जातियों के पास कारोबार तो था पर जमीन नहीं होने के कारण हमें खाने के अनाज के लिए हमेशा इन्हीं यादवों और भूमिहार-राजपूत पर निर्भर रहना पड़ता था.


सदानंद सहनी अपना निजी अनुभव बताते हुए कहते हैं कि ऐसा बहुत कम ही होता है या बिलकुल नहीं होता कि कोई यादव किसी दूसरे के खेत में मजदूरी करता हो पर निचली जातियों की यही सच्चाई रही. लालू के इस प्रयोग ने निचली जातियों के उम्मीदों का गला ही घोंटा. 

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