On Yes Bank Crisis
मैं देख रहा हूँ कि बहुत से लोग यस बैंक पर लिखने से बच रहे रहे हैं, इन्क्लुडिंग मी. पर अर्थशास्त्र पर मेरी समझ बिहार इंटरमीडिएट आर्ट्स 2016 की टॉपर रही रूबी राय जितनी ही है. अंतर बस इतना है कि उसने बिना पढ़े टॉप किया था मैंने पढ़-पढ़ कर. लेकिन इससे समझ पर कम ही अंतर पढ़ा क्योंकि रूबी जी के उलट मैं नीचे से टॉपर रहा. रूबी राय पर पोस्ट के अंत में फिर आऊंगा.
आपने कथित राष्ट्रवादी चैनल जी न्यूज को यस बैंक पर ज्ञान देते हुए नहीं सुना होगा. क्योंकि यस बैंक से जी न्यूज के मालिक सुभाष चंद्रा ने भारी-भरकम लोन ले रखा है. इसी तरह अनिल अम्बानी ने भी इसी बैंक से 13 हजार कड़ोर का लोन ले रखा है. जो भी चैनल यस बैंक पर बात करने से बच रहा हो, समझ जाइये कि इसमें अम्बानी का पैसा लगा है.
लेकिन सबसे अधिक झटका इन्फ्रास्ट्रक्चर में इन्वेस्ट करने वाली कंपनी आईएल एंड एफएस के कारण लगा है. पिछले वर्ष यह कंपनी डूबने के कगार पर थी तो सरकार को आगे आना पड़ा था.
पर DHFL का बकाया एक बार फिर से अम्बानी और जी न्यूज जैसा ही है.
आम आदमी को बैंक से लोन लेने में पसीने छूट जाते हैं पर लेकिन अम्बानी, सुभाष चंद्रा जैसे लोग के लिए यह सब एक फ़ोन कॉल का नतीजा होता है. इससे पहले भी ऐसे कई उदहारण देखने को मिल चुके हैं. नीरव मोदी, ललित मोदी, विजय माल्या, सहारा को कौन भूल सकता है?
समस्या पुरानी है शायद असाध्य भी. इसलिए मर्ज ढूँढना आसन नहीं है खास कर तब जब ऐसे लोन लेने वालों का मिडिया में हिस्सेदारी हो.
जिनका पैसा फंसा है उनका ये कह कर मजाक उड़ना आसान है कि उन्होंने मोदी को वोट दिया होगा. पर क्या यह सब बदल जाता यदि उन्होंने किसी और को वोट दिया होता?
ना यस बैंक पहला ऐसा बैंक है और ना आखिरी होगा. पर इसमें हर बार पिसने वाली जनता ही होती है. हालांकि बैंक के डूबने या ऐसे किसी भी स्थति में 5 लाख तक राशी का माई-बाप सरकार होती है, पहले यह अकड़ा 1 लाख था. लेकिन इसमें भी कई कमियां हैं, जो विशेषकर दूसरे बैंकों, राज्य सरकार आदि का मामला है. पर यदि पैसा विदेश से भेजा गया हो तो आम आदमी फिर लपेटे में आएगा.
और इस तरह सबसे अधिक दिक्कत अल्पसंख्यकों को होगी. अकलियत आबादी अरब देशों में जाकर पैसा कमाती है जिन्हें भुगतान की समस्या होगी. पर फ़िलहाल ऐसा कुछ होने की संभावना नहीं है.
लेकिन डूबते बैंकों में एक समनता है कि ये अपना एनपीए ठीक-ठीक नहीं बताती. शेयरबाजार में नामित होने के बावजूद पारदर्शिता के नाम पर खेल ही चल रहा है. सरकार एक ही साथ इन बैंकों या नॉन फिनासिंग प्राइवेट लिमिटेड का नाम सार्वजनिक करने से बच रही है और इसे किश्तों में बाहर ला रही है पर यह समधान तो कतई नहीं है.
आदर्श स्थिति तो होगी कि आरबीआई हरेक बैंक का लेखा-जोखा सार्वजनिक करे.
रूबी रॉय पर लौटते हैं. ज़माने ने सुन्दर दिखने का के खांका खींचा हुआ है. शायद यह सब कुछ विज्ञापन के प्रसार के कारण हुआ हो. इसलिए हो सकता है कि मैं गलत होऊं पर रूबी रॉय किसी विज्ञापन की सुन्दरता वाली कसौटी पर फिट बैठती तो उसका वो हश्र नहीं होता.
आपने कथित राष्ट्रवादी चैनल जी न्यूज को यस बैंक पर ज्ञान देते हुए नहीं सुना होगा. क्योंकि यस बैंक से जी न्यूज के मालिक सुभाष चंद्रा ने भारी-भरकम लोन ले रखा है. इसी तरह अनिल अम्बानी ने भी इसी बैंक से 13 हजार कड़ोर का लोन ले रखा है. जो भी चैनल यस बैंक पर बात करने से बच रहा हो, समझ जाइये कि इसमें अम्बानी का पैसा लगा है.
लेकिन सबसे अधिक झटका इन्फ्रास्ट्रक्चर में इन्वेस्ट करने वाली कंपनी आईएल एंड एफएस के कारण लगा है. पिछले वर्ष यह कंपनी डूबने के कगार पर थी तो सरकार को आगे आना पड़ा था.
पर DHFL का बकाया एक बार फिर से अम्बानी और जी न्यूज जैसा ही है.
आम आदमी को बैंक से लोन लेने में पसीने छूट जाते हैं पर लेकिन अम्बानी, सुभाष चंद्रा जैसे लोग के लिए यह सब एक फ़ोन कॉल का नतीजा होता है. इससे पहले भी ऐसे कई उदहारण देखने को मिल चुके हैं. नीरव मोदी, ललित मोदी, विजय माल्या, सहारा को कौन भूल सकता है?
समस्या पुरानी है शायद असाध्य भी. इसलिए मर्ज ढूँढना आसन नहीं है खास कर तब जब ऐसे लोन लेने वालों का मिडिया में हिस्सेदारी हो.
जिनका पैसा फंसा है उनका ये कह कर मजाक उड़ना आसान है कि उन्होंने मोदी को वोट दिया होगा. पर क्या यह सब बदल जाता यदि उन्होंने किसी और को वोट दिया होता?
ना यस बैंक पहला ऐसा बैंक है और ना आखिरी होगा. पर इसमें हर बार पिसने वाली जनता ही होती है. हालांकि बैंक के डूबने या ऐसे किसी भी स्थति में 5 लाख तक राशी का माई-बाप सरकार होती है, पहले यह अकड़ा 1 लाख था. लेकिन इसमें भी कई कमियां हैं, जो विशेषकर दूसरे बैंकों, राज्य सरकार आदि का मामला है. पर यदि पैसा विदेश से भेजा गया हो तो आम आदमी फिर लपेटे में आएगा.
और इस तरह सबसे अधिक दिक्कत अल्पसंख्यकों को होगी. अकलियत आबादी अरब देशों में जाकर पैसा कमाती है जिन्हें भुगतान की समस्या होगी. पर फ़िलहाल ऐसा कुछ होने की संभावना नहीं है.
लेकिन डूबते बैंकों में एक समनता है कि ये अपना एनपीए ठीक-ठीक नहीं बताती. शेयरबाजार में नामित होने के बावजूद पारदर्शिता के नाम पर खेल ही चल रहा है. सरकार एक ही साथ इन बैंकों या नॉन फिनासिंग प्राइवेट लिमिटेड का नाम सार्वजनिक करने से बच रही है और इसे किश्तों में बाहर ला रही है पर यह समधान तो कतई नहीं है.
आदर्श स्थिति तो होगी कि आरबीआई हरेक बैंक का लेखा-जोखा सार्वजनिक करे.
रूबी रॉय पर लौटते हैं. ज़माने ने सुन्दर दिखने का के खांका खींचा हुआ है. शायद यह सब कुछ विज्ञापन के प्रसार के कारण हुआ हो. इसलिए हो सकता है कि मैं गलत होऊं पर रूबी रॉय किसी विज्ञापन की सुन्दरता वाली कसौटी पर फिट बैठती तो उसका वो हश्र नहीं होता.
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