कूल डूड रघुराम राजन

कूल डूड रघुराम राजन. उन दिनों प्लानिंग कमीशन हुआ करता था. 2007 में मोंटेक सिंह अहलुवालिया उसके उपाध्यक्ष थे सो उन्होंने रघु को अगली पीढ़ी के लिए आर्थिक सुधार को लेकर एक रिपोर्ट लिखने को कहा और इसके लिए रघु की ही अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समीति का गठन हुयी. समीति को लगा कि लोन देने की स्पीड बढ़ानी होगी.

2008 में रघु को तत्कालीन प्रधानमंत्री का मानद आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया गया. उसके बाद जो हुआ वो तो बस इतिहास नहीं है. असल में रघु ही पहले और अब तक के आख़िरी व्यक्ति हैं जिन्हें प्रधानमंत्री का मानद आर्थिक सलाहकार बनने का गौरव प्राप्त है.

और जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि 'बस इतिहास नहीं' है. रघुराम राजन के पिक्चर में इंट्री के बाद सिर्फ 6 सालों में इतना लोन दिया गया जितना पिछले 60 सालों में नहीं दिया गया. रघु सीढियां चढ़ते गये और इस दरम्यान कई रिकोर्ड बने. मसलन रूपए की कीमत में रिकोर्ड गिरावट और महंगाई दर का दहाई को पार करना.

फ़ोन बैंकिग का युद्धस्तर पर विकसित होने की वजह से बैंक्स अपना लिक्विडिटी खोती रही अर्थात बैंक के पास पैसे कम होते गये. इसमें अकेले रघु का ही योगदान नहीं था क्योंकि केंद्र सरकार भी कोई चीज होती है पर उनकी लिखी आर्थिक सुधार वाली रिपोर्ट फिसड्डी साबित हुई थी.

नए प्रधानमंत्री को इस सब वजह से निशाने पर लिया जा रहा था और रघु एक राजनीतिक चरित्र बन बैठे थे. उन्हें दोबारा आरबीआई का गवर्नर बनाने की मांग होने लगी. मांग करने वालों का भला क्या किया जा सकता था? पर रघु को तो आइना दिखाना बनता था. इसलिए एनपीए को लेकर मुरलीमनोहर जोशी के अध्यक्षता में संसदीय कमिटी बनी तो उसके कहने पर रघु ने फिर एक रिपोर्ट जमा की. जिसमें लोन फ्राड करने वालों के नाम तो थे ही, साथ ही उन्होंने ये भी बताया कि कैसे औने-पौने कर 2008 से 14 के बीच दिया गया लोन अब एनपीए बन गया है.

रघु को इतनी तवज्जो इसलिए भी मिल पाई थी कि उन्होंने 2008 वाली मंदी की भविष्यवाणी की थी. ऐसे तो आर्थिक मंदी हरेक 10-12 वर्षों में आता है पर इस बार रघु भी ठीक थे. लेकिन हरेक वो डॉक्टर जिसे बीमारी का अंदाजा हो, उसके दवा से बीमारी भी ठीक हो जाए यह जरुरी नहीं. वो भी तब तो बिलकुल नहीं जब उस डॉक्टर ने पढाई 'नाक बहने' की करी हो और बीमारी बवासीर हो.

हमारे कूल डूड के साथ भी यही हुआ. रघु को माइक्रोइकोनोमी में विशिष्टता प्राप्त है पर भारत में आकर वो मैक्रोइकोनोमिस्ट
बनने लगे. मतलब वो किसी कंपनी, फर्म, सीए, स्टॉक एक्सचेंज में कमाल कर सकते हैं पर वित्त मंत्री या आरबीआई का गवर्नर बनने के लिए.......!!!!!

इस तरह योग्यता के हिसाब से देखें तो शक्तिकांत दा तो अर्थशास्त्री हैं भी नही पर राजस्व सचिव और आर्थिक मामलों के सचिव के रूप में उनका कार्य देख लीजिये. इस आदमी को ऐसी-ऐसी पोस्टिंग मिली है कि बंदा सब दाँव-पेच सिख गया है. एक तो इनके पास अर्थशास्त्री होने और विदेशी डिग्रियों का दंभ नहीं है. दूसरा 15वें वित्त आयोग के सदस्य रहने के अलावे वो तमिलनाडु में रहते हुए प्रमुख सचिव (उद्योग), विशेष आयुक्त (राजस्व), सचिव (राजस्व), सचिव (वाणिज्यिक कर) रह चुके हैं.

आपको बुरा लगे और शायद अटपटा भी पर रघु अर्थशास्त्र के राहुल थे तो शक्ति........!!!!!



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