जनता कर्फ्यू का अर्थ्सशास्त्र
आइये जनता कर्फ्यू के बहाने इसके पीछे के अर्थशास्त्र को समझते हैं. ऐसे तो किसी भी महामारी का ना सिर्फ़ समाज पर बल्कि राष्ट्र की अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक असर होता है. फिर वो समाज हो या अर्थ, दोनों के लिए जनसंख्या का होना आवश्यक होता है. पर एक ओर जहां एक समाज के लिए कोई भी जनसंख्या, मानव संसाधन होती है वहीं अर्थशास्त्र के हिसाब से कोई भी जनसंख्या तभी मानव-संसाधन हो सकती, जब वह स्वस्थ, शिक्षित और स्किल्ड हो.
यदि मानव संसाधन स्वस्थ ना हो तो एक प्राकृतिक संसाधन और धन-संपदा संपन्न देश भी विकास की कसौटियों पर खड़ा नहीं हो सकता. इसलिए मानव संसाधन का कार्यबल से और कार्यबल का अर्थव्यवस्था से बहुत गहरा नाता है.
कार्यबल और अर्थव्यवस्था के संबंध को समझने के लिए सप्लाई-डिमांड को समझना होगा. जब कभी जनता खर्च करती है तो पहले डिमांड पर आर फिर माल के सप्लाई पर सकरात्मक असर पड़ता है, जिसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर होता है. दूसरे शब्दों में कहें तो जब भी हम कोई वस्तु खरीदते हैं तो किसी इंडस्ट्री या कंपनी को मुनाफ़ा होता है और उस मुनाफ़े में से कुछ पैसा देश की तिजोरी में जाता है और उसी पैसे का इस्तेमाल सरकार फिर शिक्षा, स्वास्थ्य आदि जगहों पर करती है. कम्पनी को हुए मुनाफ़े से वह बाजार में अतिरिक्त निवेश करता है, जिससे रोजगार के अवसर प्राप्त होते हैं. लेकिन उस रोजगार को वही हासिल कर पायेगा जो ना सिर्फ़ स्वस्थ हो बल्कि उसके पास वांछनीय योग्यता हो. सामान्य दिनों के लिए यह सब एक सामान्य बात है.
पर महामारी जैसे वक्त में स्थिति बदल जाती है. बदले परिस्थिति में एक तरफ तो जरुरत की वस्तुओं पर जमाखोरी का खतरा मडराने लगता है वहीं दूसरी तरफ लोगों के बीमार होने के कारण कंपनियों के पास स्वस्थ, शिक्षित और योग्य मजदूरों-कर्मचारियों की कमी हो जाती है. मतलब साफ़ है कि कारखानों में जहां खाने-पीने की वस्तुओं के निर्माण के लिए कार्यबल नहीं बचेगा वहीं मार्केट में वस्तुओं की कमी के कारण अफरातफरी मच जाएगी.
साधनसम्पन्न देशों में यही हुआ है. उन देशों में लोगों की क्रयशक्ति तो है पर वस्तुओं के निर्माण के लिए कार्यबल नहीं है. भारत में भी ऐसे साधनसम्पन्न लोगों की कमी नहीं है. देखा जाय तो, कोरोना का भारत में प्रवेश इन्हीं साधनसम्पन्न लोगों द्वारा हुआ है.
खैर, जमाखोरी हो या लोगों में स्मभाव्य ख़तरे का आभास, इसके कारण बेतहासा मंहगाई बढ़ सकती है और निम्न आय वाले लोग जरुरी वस्तुओं को ख़रीदने से महरूम रह सकते हैं. यदि कारख़ाने का मालिक बढ़ती महंगाई और वस्तुओं की मांग को देखते हुए किसी प्रकार वस्तुओं के निर्माण को जारी भी रखता है तो उसे वस्तुओं की गुणवत्ता से समझौता करना पड़ेगा. इस कारण लोग और भी बीमार हो सकते हैं. उदहारण के लिए एक अच्छे मास्क की जगह निम्न क्वालिटी वाला मास्क ही चिपका दिया जायेगा तो कोरोना के बढ़ने की संभावना और भी बढ़ेगी.
जनता कर्फ्यू के कई उद्देश्यों में से एक उद्देश्य नियम मानने वाले और नियम ना मानने वाले सामजिक वर्गों को अलग-अलग करना है. एक दिन के ट्रायल के बाद सरकार यह समझ सकेगी भविष्य में कहां कितना बल प्रयोग करना है. मसलन कि किस धर्म, क्षेत्र, भाषा-भाषी के लोग कितना नियम का पालन कर पा रहे, उस हिसाब से उन्हें भविष्य के लिए तैयार होना होगा.
याद रहे कि भारत में कोरोना का अब तक कम प्रभाव इसलिए भी पड़ा है क्योंकि इसके चपेट में अधिकतर लोग वो आये हैं जो अक्सर नियमों का पालन करते हैं.
जनता कर्फ्यू के माध्यम से हम धर्म, राजनीतिक पसंद आदि को भुला कर एक दूसरे को विश्वास दिला सकते हैं कि जरुरत पड़ने पर हममें कितनी एकता है. भले ही यह कर्फ्यू कागजों पर सिर्फ़ 14 घंटे का दिख रहा हो पर व्यावारिक रूप से यह 24 घंटे से अधिक का होने वाला है. क्योंकि यह शनिवार की रात से सोमवार की सुबह तक चलेगा.
इससे पहले लालबहादुर शास्त्री के अपील पर भारत की जनता ने एक दिन का उपवास रखना शुरू कर दिया था. 1965 में, उस समय देश खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा था. हो सकता है कि आज भी हमारे देश में बहुत सी कमियां हैं. मसलन अस्पताल की कमी, जितने भी अस्पताल हैं उसमें डोक्टरों और नर्सों की कमी, दवा-दारु आदि-आदि. पर कमी किस देश में नहीं होती. आज भारत से अधिक साधनसम्पन्न देश भी हमसे कहीं अधिक पीड़ित हैं और वो भारत को एक आशाभरी नजरों से देख रहे हैं और भारत हममे से हर एक की ओर. इन तमाम कमियों के बीच भी यदि वही डॉक्टर, वही नर्स युद्ध स्तर पर काम कर रहे तो हमारे पास भी मौका है कि हम कुछ ना करके भी देश के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं.
यदि मानव संसाधन स्वस्थ ना हो तो एक प्राकृतिक संसाधन और धन-संपदा संपन्न देश भी विकास की कसौटियों पर खड़ा नहीं हो सकता. इसलिए मानव संसाधन का कार्यबल से और कार्यबल का अर्थव्यवस्था से बहुत गहरा नाता है.
कार्यबल और अर्थव्यवस्था के संबंध को समझने के लिए सप्लाई-डिमांड को समझना होगा. जब कभी जनता खर्च करती है तो पहले डिमांड पर आर फिर माल के सप्लाई पर सकरात्मक असर पड़ता है, जिसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर होता है. दूसरे शब्दों में कहें तो जब भी हम कोई वस्तु खरीदते हैं तो किसी इंडस्ट्री या कंपनी को मुनाफ़ा होता है और उस मुनाफ़े में से कुछ पैसा देश की तिजोरी में जाता है और उसी पैसे का इस्तेमाल सरकार फिर शिक्षा, स्वास्थ्य आदि जगहों पर करती है. कम्पनी को हुए मुनाफ़े से वह बाजार में अतिरिक्त निवेश करता है, जिससे रोजगार के अवसर प्राप्त होते हैं. लेकिन उस रोजगार को वही हासिल कर पायेगा जो ना सिर्फ़ स्वस्थ हो बल्कि उसके पास वांछनीय योग्यता हो. सामान्य दिनों के लिए यह सब एक सामान्य बात है.
पर महामारी जैसे वक्त में स्थिति बदल जाती है. बदले परिस्थिति में एक तरफ तो जरुरत की वस्तुओं पर जमाखोरी का खतरा मडराने लगता है वहीं दूसरी तरफ लोगों के बीमार होने के कारण कंपनियों के पास स्वस्थ, शिक्षित और योग्य मजदूरों-कर्मचारियों की कमी हो जाती है. मतलब साफ़ है कि कारखानों में जहां खाने-पीने की वस्तुओं के निर्माण के लिए कार्यबल नहीं बचेगा वहीं मार्केट में वस्तुओं की कमी के कारण अफरातफरी मच जाएगी.
साधनसम्पन्न देशों में यही हुआ है. उन देशों में लोगों की क्रयशक्ति तो है पर वस्तुओं के निर्माण के लिए कार्यबल नहीं है. भारत में भी ऐसे साधनसम्पन्न लोगों की कमी नहीं है. देखा जाय तो, कोरोना का भारत में प्रवेश इन्हीं साधनसम्पन्न लोगों द्वारा हुआ है.
खैर, जमाखोरी हो या लोगों में स्मभाव्य ख़तरे का आभास, इसके कारण बेतहासा मंहगाई बढ़ सकती है और निम्न आय वाले लोग जरुरी वस्तुओं को ख़रीदने से महरूम रह सकते हैं. यदि कारख़ाने का मालिक बढ़ती महंगाई और वस्तुओं की मांग को देखते हुए किसी प्रकार वस्तुओं के निर्माण को जारी भी रखता है तो उसे वस्तुओं की गुणवत्ता से समझौता करना पड़ेगा. इस कारण लोग और भी बीमार हो सकते हैं. उदहारण के लिए एक अच्छे मास्क की जगह निम्न क्वालिटी वाला मास्क ही चिपका दिया जायेगा तो कोरोना के बढ़ने की संभावना और भी बढ़ेगी.
जनता कर्फ्यू के कई उद्देश्यों में से एक उद्देश्य नियम मानने वाले और नियम ना मानने वाले सामजिक वर्गों को अलग-अलग करना है. एक दिन के ट्रायल के बाद सरकार यह समझ सकेगी भविष्य में कहां कितना बल प्रयोग करना है. मसलन कि किस धर्म, क्षेत्र, भाषा-भाषी के लोग कितना नियम का पालन कर पा रहे, उस हिसाब से उन्हें भविष्य के लिए तैयार होना होगा.
याद रहे कि भारत में कोरोना का अब तक कम प्रभाव इसलिए भी पड़ा है क्योंकि इसके चपेट में अधिकतर लोग वो आये हैं जो अक्सर नियमों का पालन करते हैं.
जनता कर्फ्यू के माध्यम से हम धर्म, राजनीतिक पसंद आदि को भुला कर एक दूसरे को विश्वास दिला सकते हैं कि जरुरत पड़ने पर हममें कितनी एकता है. भले ही यह कर्फ्यू कागजों पर सिर्फ़ 14 घंटे का दिख रहा हो पर व्यावारिक रूप से यह 24 घंटे से अधिक का होने वाला है. क्योंकि यह शनिवार की रात से सोमवार की सुबह तक चलेगा.
इससे पहले लालबहादुर शास्त्री के अपील पर भारत की जनता ने एक दिन का उपवास रखना शुरू कर दिया था. 1965 में, उस समय देश खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा था. हो सकता है कि आज भी हमारे देश में बहुत सी कमियां हैं. मसलन अस्पताल की कमी, जितने भी अस्पताल हैं उसमें डोक्टरों और नर्सों की कमी, दवा-दारु आदि-आदि. पर कमी किस देश में नहीं होती. आज भारत से अधिक साधनसम्पन्न देश भी हमसे कहीं अधिक पीड़ित हैं और वो भारत को एक आशाभरी नजरों से देख रहे हैं और भारत हममे से हर एक की ओर. इन तमाम कमियों के बीच भी यदि वही डॉक्टर, वही नर्स युद्ध स्तर पर काम कर रहे तो हमारे पास भी मौका है कि हम कुछ ना करके भी देश के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं.
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