Q -A GOGOI
वदित हो कि सामाजिक कार्यकर्त्ता मधुकेश्वर पूर्णिमा ने पूर्व मुख्यन्यायाधीश के राज्यसभा मनोनय के खिलाफ़ एक रिट पेटीशन दायर किया है, जिसका लिंक कमेन्ट बॉक्स में दिया गया है.
पिछले पोस्ट पर मुख्यन्यायाधीश के राज्यसभा सदस्य के रूप में मनोनय पर कुछ सवाल उठाये गये थे. इस पोस्ट में उसी सब सवाल पर प्रकाश डाला जा रहा है.
सवाल 1 . बहरूल इस्लाम या रंगनाथ मिश्रा का मामला रंजन गोगोई के राज्यसभा सांसद बनाये जाने से बिल्कुल अलग है। बहरूल इस्लाम या रंगनाथ मिश्रा कांग्रेस पार्टी से राज्यसभा सांसद बने जबकि रंजन गोगोई केन्द्र सरकार की अनुशंसा पर राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये गये। इसलिए जस्टिस गोगोई का मनोनय गलत हैं?
उत्तर - हरेक केस अपने आप में अलग होता है, उसी तरह हरेक न्युक्ति, मनोनय आदि भी अलग ही होगा. ये सवाल तब भी जस के तस बने होते यदि गोगोई को भाजपा से राज्यसभा भेजा जाता. किसी मनोनय के सही या गलत होने में समनता या असमानता देखने से पहले इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि यह मनोनय कानून की किसी धारा या संविधान के किसी अनुच्छेद का उलंघन तो नहीं करता.
सवाल 2 . मनोनयन किसी क्षेत्र विशेष के आधार पर होता है,कोई बता सकते हैं कि रंजन गोगोई को किस क्षेत्र में उनकी खास उपलब्धियों के आधार पर मनोनीत किया गया?
उत्तर - संविधान के अनुच्छेद 80(3) के अनुसार, राज्यसभा में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत व्यक्ति को साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या व्यावाहारिक अनुभव प्राप्त होना चाहिए.
गोगोई का क्षेत्र कानून व संविधान है और कानून या संविधान अपने आप में कला और विज्ञान दोनों है. हालांकि कानून के कला या विज्ञान होने में विवाद जरुर रहा है पर आप यदि इसे कला नहीं मानते तो यह विज्ञान होगा. उसी तरह कोई इसे विज्ञान नहीं मानता तो यह कला होगा.
दुनियां की कोई भी विधा या तो विज्ञान होती है या फिर कला और कई बार दोनों.
हां यदि संविधान में इस बात का स्पष्टीकरण होता कि किस क्षेत्र को कला या विज्ञान माना जाये और 'कानून' को उसमें जगह नहीं मिलती तो शायद यह प्रश्न जायज होता. पर संविधान में किसे कानून या कला माना जाय, इस पर स्पष्टीकरण नहीं है.
पर हमें समझना होगा कि सिर्फ रसायन, भौतकि, गणित, और खगोल शास्त्र ही विज्ञान नहीं है. हिंदी व्याकरण भी एक विज्ञान है पर ऑटोमोबिले या हैंडसेट का डिजाइन तैयार करना एक कला है. इसलिए ना सिर्फ कला या विज्ञान बल्कि समाज सेवा और साहित्य को भी उसके वृहत रूप में समझने की आवश्यकता है. इन विषयों पर आम समझ अक्सर संकुचित होती है. कानून और संविधान के अध्येता के रूप में हमें संकुचित समझ से बचने की आवश्यकता है.
सवाल 3 . रंजन गोगोई को सीजेआई पद से रिटायर्ड होने के मात्र चार महीने में राज्यसभा सांसद मनोनीत किया गया, जबकि बहरूल इस्लाम या रंगनाथ मिश्रा अपने सुप्रीम कोर्ट जस्टिस पद से हटने के तुलनात्मक रूप से ज्यादा समय बीतने के बाद कांग्रेस पार्टी से राज्यसभा सांसद बने,मनोनयन से नहीं।
उत्तर - चार महीने महज एक संयोग है, उनका मनोनय उनके रिटायर होने के अगले दिन भी किया जा सकता था. यदि मनोनय अगले दिन भी होता तो भी, ना संविधान का कोई अनुच्छेद और नाही कानून की कोई धारा इसमें बाधक होती.
अव्वल तो ये समझना होगा कि जहां एक तरफ रंगनाथ मिश्रा और बरहुल इस्लाम का राजनीतिक झुकाव पूरी तरह से कोंग्रेस की तरफ था वहीँ गोगोई के साथ ऐसा कुछ नहीं है.
सवाल 4 . गोगोई ने जज लोया, राफेल,NRC,अनुच्छेद 370,राममंदिर आदि महत्वपूर्ण मुकदमे में फैसले दिये। इस प्रकार के मुकदमे बहरूल इस्लाम, रंगनाथ मिश्रा से जुड़े नहीं हैं।
उत्तर - उपरोक्त सभी मामले की सुनवाई गोगोई के सामने हुयी और सुनवाई लम्बी चली. गोगोई इसमें से किसी भी मामले में अकेले जज नहीं थे. हरेक मामले के लिए या तो कोई संवेधानिक पीठ गठित की गयी या फिर कोई सामान्य पीठ. जो भी फैसला आया वह गोगोई के अकेले का नहीं था.
कोई जज यदि फैसला दे तो वह बात भी उसके खिलाफ जाएगी इससे अच्छा है कि वो फैसला ही ना दे. क्या फैसला देना गलत है? कोर्ट यदि फैसला नहीं करेगी तो आखिर कोर्ट का निर्माण ही किसलिए हुआ है?
कोई फैसला कितना सही है कितना गलत है इस पर तो बहस किया जा सकता है. यदि प्रश्नकर्ता उपरोक्त फैसले की संवेधानिकता पर सवाल उठायें तो कुछ सोचा जा सकता है. किसी फैसले को सीधे-सीधे गलत या सही कहना, किसी की राजनीतिक मज़बूरी हो सकती है पर कानून इस मामले में अँधा होता है. आपकी राजनीतिक और धार्मिक मज़बूरी यदि इस बात का फैसला करती है कि कौन फैसला कितना सही और कितना गलत है, तो कानून की दृष्टि से इस बात का जवाब देना मुश्किल है.
जैसे कि भाजपाई दृष्टिकोण से लिखे इस पोस्ट को देखें -
''गोगोई ने हर वक्त या तो कोंग्रेसियों का साथ दिया या फिर कुछ ऐसा किया जिससे कामपंथ को अपना अजेंडा चलाने में आसानी हुयी. पहली बार जब उन्होंने तीन अन्य जजों के साथ प्रेस-कांफ्रेस किया तो उसी समय इनका कोग्र्सिपन बाहर आ गया था. पर तर्कों और तथ्यों के कसौटी पर कोई कोंग्रेसी कब तक टिका है जो गोगोई टिकते.
राफेल मामले में महोदय ने सीधे-सीधे कोंग्रेस को फ़ायदा पहुँचाया. प्रशांत भूषण एंड टीम राफेल को लेकर सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर करती है, कोर्ट सरकार और प्रशांत भूषण के दलील और डाक्यूमेंट्स देखती है और फैसला कर लेती है लेकिन फैसला सुनाती नहीं बल्कि उसे सुरक्षित रखा जाता है. ऐसे में कोग्रेस 5 राज्यों( मिजोरम, तेलंगना, मध्यप्रदेश, राजस्थान, और छतीसगढ़) के विधानसभा चुनाव के लिए राफेल को मुद्दा बनाती है और इस बार खोंटा सिक्का भी चल जाता है. कोंग्रेस तीन राज्यों में सरकार बना लेती है.
इलेक्सन रिजल्ट के ठीक बाद राफेल पर सुप्रीमकोर्ट का फैसला आता है, जिसमें सर्वसम्मति से कहा गया कि राफेल खरीद में किसी प्रकार की अनियमितता नहीं बरती गयी. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कोंग्रेस को फ़ायदा पहुँचाने के लिए ही फैसले को सुरक्षित रखा गया और जिसे चुनाव के बाद सुनाया गया? यदि राफेल पर सुप्रीमकोर्ट इन राज्यों में मतदान के पूर्व ही फ़ैसला दे देती तो क्या कोंग्रेस इन राज्यों में जीत दर्ज कर पाती?
रंजन गोगोई यहीं नहीं रुके. राम मंदिर पर भी उन्होंने ऐसा ही रवैया अपनाया. कपिल सिब्बल ने कोर्ट को कह दिया कि यदि फ़ैसला 2019 आमचुनाव के पहले आएगा तो इसका फायदा भाजपा उठा लेगी, और महोदय मान बैठे. यदि राम मंदिर पर चुनाव से पहले फैसला आता तो क्या कोंग्रेस 10-20 सीटें भी जीत पाती?
35A पर भी कोर्ट ने भाजपा को संसद में संकल्प पत्र लाने के लिए मजबूर कर दिया. 'वी द सिटिज़न' नाम के एक गैर सरकारी संगठन ने 2014 में ही 35A की संवैधानिकता को लेकर याचिका दायर कर दी थी. एक ऐसा कानून जो सीधे-सीधे 'समानता के अधिकार' जैसे मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है उस पर सुप्रीमकोर्ट को फैसला सुनाने में इतना वक्त लगा, बल्कि उन्होंने फ़ैसला सुनाया ही नहीं.
जिस संवैधानिक पीठ को 35A पर फ़ैसला सुनाना था उसमें जस्टिस गोगोई भी थे. मजे की बात ही है कि संविधान के किसी संसोधन में कपिटल 'A' का प्रयोग नहीं हुआ. हमेशा संविधान संसोधन को इंगित करने के लिए अंग्रेजी के स्माल 'a' का ही प्रयोग होता है. पर माननीय गोगोई को यह समझ में नहीं आ पाया.
35A के लिए नेहरु जी ने अध्यादेश लाया था, जिसे 6 महीने के अन्दर संसद के दोनों सदनों से पास करवाना था जो कि हो नहीं पाया. इस तरह यह कानून हमेशा से ना सिर्फ असंवेधानिक था बल्कि स्त्रियों के खिलाफ़ नकारात्मक भेदभाव ही उतपन्न करता था. इसके बाबजूद ना सिर्फ गोगोई बल्कि संवेधानिक पीठ भी इस पर कुंडली मार कर बैठी रही.
सबरीमाला के मुद्दे पर भी गोगोई ने वही किया जो एक आम लिबरलपंथी कर सकता था. यहां पर मोहोदय को 'मौलिक अधिकार' याद आ गया. इस विषय पर गठित संवेधानिक पीठ की एक जज इंदु मल्होत्रा ने भले ही अयप्पा भक्तों के भावनाओं का ख्याल रखा, पर जस्टिस गोगोई समेत अन्य जजों ने समानता का अधिकार का भरपूर दोहन किया.
ये तो अच्छा हुआ कि किसी लड़के ने याचिका दायर कर किसी महिला महाविद्यालय में नामांकन की गुहार नहीं लगाई वरना आने वाली पीढ़ियों के लिए गोगोई भगवान ही होते.
गोगोई हर उस मौके पर भाजपा के खिलाफ गये जहां विपक्ष को फायदा हो सकता था. और जब कभी फैसला भाजपा के अनुसार आने की संभावना हुई तो गोगोई ने ऐसी टाइमिंग फिक्स की कि भाजपा उसका फायदा ना उठा पाए.
गोगोई, सरकार के ना-नुक्कुर के खिलाफ जाकर जस्टिस कुरियन जोसेफ़ की पदौन्नती पर अड़े रहे. हर कदम पर उन्होंने काम्पंथियों का ही साथ दिया इसके बावजूद यदि कामपंथी अपनी कृतघ्नता का परिचय देना चाहते हैं तो अल्लाह ही बचाए उन्हें.
आम जीवन में तर्क और तथ्य के मामले में कंगाल हो चुकी पूरे लिबरल खेमे को आखिर कोई जस्टिस गोगोई कब-कब और कितनी देर तक बचाएगा? कुछ देर के लिए वो उन्हें बचा भी लें तो आख़िरी पंच-परमेश्वर तो कोर्ट के बाहर ही बैठती ही. पब्लिक, वो सब जानती है.''
सवाल 5 . रंजन गोगोई को रिटायर्ड होने के बाद इतने कम समय में राज्यसभा सांसद मनोनयन को स्वीकार नहीं करना चाहिए, दो-चार साल बाद देखा जाता।सवाल, संदेह तो उठेंगे, उठ ही रहे हैं।
उत्तर - सवाल यदि तर्कों और तथ्यों की कसौटी पर खड़े हों तो शायद उसका जवाब दिया जा सके. एक महीना, दो-चार साल या एक दिन, ये सब एक संयोग मात्र होता है. गोगोई को यदि चार साल बाद किसी ट्रिब्यूनल का सदस्य बनाया जाता तो सवाल उठाया ही जाता. पर उसका कोई सिर पैर नहीं होता.
नोट - गोगोई के इस तरह मनोनय होने के कारण, उनपर किये जा रहे निजी हमले बेबुनियाद हैं. इसके वाबजूद सामजिक कार्यकर्त्ता मधुकेश्वर पूर्णिमा ने रिट पेटीशन दायर कर कुछ सवाल उठाये हैं जो कि ना सिर्फ विचारणीय हैं बल्कि उसमें बहुत कम राजनीतिक पुट हैं. ध्यान रहे कि खुद मधुकेश्वर पूर्णिमा को भी, गोगोई द्वारा दिए गये फैसलों से दिक्कत नहीं है. वो खुद ना सिर्फ नरेंद्र मोदी समर्थक हैं बल्कि उनकी लिखी किताब 'मोदी-मुस्लिम एंड मिडिया' गुजरात दंगे पर मोदी को क्लीन चिट देने के लिए जानी जाती है.
आप यदि गोगोई को उनके दिए फैसलों के कारण राज्यसभा सदस्य के रूप में नहीं पचा रहे हैं तो आप पर दया करने के शिवाय और किया भी क्या जा सकता है?
खैर, रिट पेटीशन को पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें -
https://images.assettype.com/barandbench/2020-03/527d11ff-ad51-4764-814e-61e62a28bbe5/Madhu_Kishwar_vs_Union_of_India.pdf
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