अम्बेदकर आरक्षण लोलुपों देश विरोधिओं और भ्रष्टाचारियों के लिए एक ढाल

अम्बेदकर अपने ज़माने के तीक्ष्ण पतिभा और तर्क शक्ति के ज्योति पुंज थे. उनके द्वारा लिखी और बोली गयी बातें मिलावट मुक्त होती हैं. रिकॉर्ड समय में पीएचडी की 6 थीसिस लिखने के वाबजूद उन्होंने ना कॉपी-पेस्ट किया बल्कि हर एक थीसिस मील का पत्थर साबित हुयी. अंतिम शोधपत्र को तो ज़रूरत पड़ने पर दोबारा लिखा, जिसके आधार पर भारत का रिज़र्व बैंक काम करती है. उनका स्त्री चिंतन 'फेमिनिस्ट के वेव' से भी पहले आ गया था. यह सच है कि जिस 'आजादी की लड़ाई' के लिए सुभाषचंद्र बोस, वीर सावरकर, भगत सिंह आदि को याद किया जा सकता है, उसमें अम्बेदकर ने कभी भाग नहीं लिया.यहां तक कि यदि ब्रिटिश के खिलाफ कुछ बोला तो वो भी छुआछूत और तमाम सामाजिक कमियों के खिलाफ़ ही था. पर उनकी लड़ाई कई मायनों में 'स्वतंत्रता की लड़ाई' से अधिक वृहत और प्रभावकारी था.

इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि जब भी उन्होंने कोई 'प्रोग्रेसिव स्टेप' लेने की बात कही उन्हें अन्य नेताओं का साथ नहीं मिला. समर्थन ना मिलने का कारण बताने की जरुरत मैं नहीं समझता.

1938 के बॉम्बे सम्मलेन में उन्होंने कहा, ''यदि पुरुषों को उस दर्द का सहन करना पड़े जो महिलाओं को प्रसव के दौरान होता है, तो उनमें से कोई भी अपने जीवन में एक से अधिक बच्चे को जन्म देने के लिए सहमत नहीं होगा.''  आंबेडकर के इस कथन के कई आयाम थे. उन्होंने बताया कि ज्यादातर महिलाओं का बच्चों की संख्या को लेकर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता है, जो कि अवश्य होना चाहिए. यदि ऐसा होगा तो महिलाओं को व्यक्तिगत सम्मान, स्वतंत्रता और राष्ट्र के दूसरे जिम्मेदारियों  को निभाने का मौका मिलेगा.

यह चमत्कारिक ही था कि आंबेडकर ने यौन सहमती को उस दौर में मुद्दा बनाया, जो आज कहीं ज्वलंत मुद्दा बन रहा  है. उन्होंने व्यावाहिक सेक्स की बात उस वक्त की, जिसे नारीवादी सिध्यांत अब जाकर कहीं छू पा रही  है.

इसी चर्चा में, आंबेडकर  ने दुसरे कई महत्वपूर्ण पहलुओं को भी छुआ. जैसे कि बच्चा जन्म देने के दौरान, औरतों को होने वाली शारीरिक पीड़ा. प्रसव के दौरान कई बार मेडिकल सहायता न मिल पाने से, महिलाओं की मृत्यु भी हो जाती  है. इस तरह आंबेडकर ने वर्ग हित से अलग हट कर सभी महिलाओं की बात की.

अंत में, उन्होंने एक रिजोल्युसन को पास कारने की मांग की, जिसमें सरकार द्वारा पोषित गर्भ निरोध का हल हो. पर उनका यह प्रस्ताव पास नहीं हो सका. प्रस्ताव को सिर्फ 11 सदस्यों ने समर्थन दिया ,जबकि 52 ने विरोध में मत प्रकट किये.

इस्लाम पर उनकी राय सावरकर से तो अलग थी पर नेहरु के खिलाफ़. अम्बेदकर पूरी मुस्लिम जनसंख्या को पाकिस्तान भेजने के पक्ष में थे, पर जाहिर है कि उनकी बात पर अमल कौन करता है.

छुआछुत, जातिवाद मिटाने आदि पर अम्बेदकर की राय से मैं कभी पुर्णतः सहमत नहीं हो सका. इसके बावजूद उन्होंने जो रास्ता दिखाया वही आज प्रभावकारी सिद्ध हो रही है. मेरा निजी तौर पर मानना है कि गाँधी और सावरकर का दिखाया मार्ग अम्बेदकर से कहीं अधिक प्रभावकारी होता. सावरकर के दिखाए रस्ते पर आरएसएस चला और परिणाम सामने है. इसी तरह गाँधी का प्रयोग केरल में काफ़ी सफ़ल रहा.


पहले अम्बेदकर आरक्षण लोलुपों और भ्रष्टाचारियों के लिए एक ढाल थे, अब उन्होंने देश विरोधिओं को भी जोड़ लिया है. बल्कि यह कहना उचित होगा कि देश विरोधियों ने उन्हें जोड़ लिया है. कोई भी देश विरोधी कार्यक्रम बिना अम्बेदकर की फ़ोटो के पूरा नहीं होता है. उस कार्यक्रम में हरेक वक्ता यह तो दोहराता है, 'अम्बेदकर ने संविधान दिया, अधिकार दिया, आदि आदि', पर ये नहीं बताता कि अम्बेदकर ने कहा क्या और लिखा क्या?

अभी ताज़ा-ताज़ा उदाहरण आईएफएस  

देवयानी खोब्रागड़े  

है,  वो भी दलित हैं इसलिए वो अम्बेदकर पर किताब लिखने जा रही हैं, जो कि एक अच्छी बात है. मुझे उस किताब का इंतजार रहेगा. पर यह समझना आवश्यक है कि एक दलित आईएफएस होने के अलावा वो और क्या-क्या हैं?

देवयानी का कहना है कि वो अम्बेदकर के संघर्ष को अपने किताब के माध्यम से बच्चों को बतएंगीं पर वो खुद अपने घर में काम कर रही औरत को कम सैलरी देती हैं और तो और वो इसे लेकर झूठ भी बोलती हैं. पर भारत में रह कर इस अब से बच निकलने की गुंजाइश भले हो अमेरिका में ऐसा होना मुश्किल है और देवयानी को पकड़ा गया. एक भारतीय के रूप हर एक को यह घटना कष्ट देने वाली थी. विदेश मंत्रालय के पप्रयास के बाद मामला रफा दफा हुआ.

देवयानी एक आईएएस की बेटी हैं. उनके पिता उत्तम खोब्रागड़े 2014 में ही कोंग्रेस ज्वाइन कर, चुनाव लड़ चुके हैं. पिता-पुत्री दोनों ही आदर्श घोटाले में आरोपी हैं. उत्तम खोब्रागड़े का ना सिर्फ नागरिकता संसोधन कानून पर लोगों को दिग्भ्रमित करते हैं बल्कि 370 जैसे मुद्दे पर भी वो कश्मीर के अलगावादियों के साथ खड़े दिखते हैं. 

चुकी देवयानी भी आदर्श घोटाले में अपने पिता के साथ आरोपित हैं, जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ेगी उनकी मुश्किल भी. पर उनके पास डॉक्टर ख़लीफ की तरह खेलने के लिए 'मुस्लिम विक्टिम कार्ड' है नहीं और यदि 'महिला विक्टिम कार्ड' खेलेगीं तो पिता पीछे छूट जायेगें इसलिए उन्हें एक सदाबहार अम्बेदकर को अपने आगे खड़ा करने का मौका मिल गया है. 

अभी देवयानी को रिटायर्ड होने में अच्छा खासा समय बचा है पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने के कारण उनकी कभी भी छुट्टी की जा सकती है. इसलिए राजनीति करने का एक सेफ़जोन उन्होंने पहले से ही तैयार कर रखा है.   
















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