फिर हार गये महराज
जबसे भारत सरकार ने शाही अनुदान(प्रिवी पर्स) को समाप्त किया, राजघरानाओं का रसूख कम होता ही गया. ऐसे में सिर्फ़ वही राजघराने का प्रभावकारी अस्तित्व बचा जिन्होंने समय रहते राजनीति में अपनी पैठ बनाई. यूं तो ये राजघराने पिछले दरवाजे से ही सत्ता चलाने के आदी थे. सिंधिया परिवार भी ऐसे ही राजघरानों में था. आजादी के बाद ग्वालियर हिन्दू महासभा का स्ट्रोंग होल्ड हुआ करता था क्योंकि हिन्दू-महासभा को महाराज जीवाजी राव सिंधिया का संरक्षण प्राप्त था.
कोंग्रेस को महराजा का महासभा के साथ ये गांठ पसंद नहीं था, इसलिए नेहरु ने राजघराने के लिए दिक्कत पैदा करनी शुरू की, मसलन शाही भत्ते में कमी, भत्ते पर टैक्स लगाने का मसौदा आदि-आदि. एक बार यदि कोंग्रेस महराज को परास्त करने में सफल होती तो निश्चित रूप से राजघराना का प्रभाव कम होता पर जीवाजीराव को इसका इल्म नहीं था वो मुंबई में ही अपना समय बिताते थे.
पर उनकी धर्मपत्नी राजमाता को इसका अंदाजा था इसलिए वो खुद नेहरु से मिली. नेहरु ने साफ़-साफ़ कहा कि राजघरानों को जब सरकार की तिजोरी से मोटी रक़म मिल ही रही है, इसके बाबजूद विपक्ष का साथ देना कितना ठीक है? इस पर राजमाता ने नेहरु को विश्वास दिलाया कि भविष्य में राजघराना राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करेगा.
नहेरु जी को इसबात पर विश्वास नहीं हुआ तो उन्होंने राजमाता से कहा कि महराज को कोंग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ाया जाय. पर महराज प्रत्यक्ष राजनीति में आना नहीं चाहते थे इसलिए राजमाता को ही चुनाव लड़ने के लिए आगे आना पड़ा.
पर महराज का कोंग्रेस से छत्तीस का आकड़ा जारी ही रहा वो किसी भी प्रकार से नेहरु को पसंद नहीं करते थे. नेहरु को हिन्दू महासभा पसंद नहीं था इसलिए दूसरी बार चुनाव(1967) लड़ने के लिए राजमाता ने कोंग्रेस से अलग हुए सी राजगोपालचारी की स्वतंत्रता पार्टी से चुनाव लड़ी और जीत भी गयी. बताते चलें कि स्वतंत्रता की संस्थापक सदस्यों में जयपुर की राजकुमारी गायत्री देवी भी थी जिन्हें उनके पहले चुनाव में बड़ी जीत हांसिल हुयी थी. 2017 में आई बोलीवुड की फिल्म बादशाहो गायत्री देवी के ही जीवन पर बनी प्रतीत होती है. प्रतिष्ठित वेग पत्रिका की तरफ़ से उन्हें विश्व की 10 सबसे खूबसूरत महिलाओं में स्थान दिया गया था.

इस बीच नहेरु और राजमाता के पति दोनों गुजर चुके थे. राजमाता फैसले लेने के लिए अब पहले से अधिक स्वतंत्र थी. नेहरु की जगह पहले लालबहादुर शास्त्री आये फिर इंदिरा गाँधी.
इंदिरा को ये राजघराने फूटी आँख नहीं सुहाते थे. वो खुद एक प्रकार से राजकुमारी ही थीं. इस कारण मध्यप्रदेश कोंग्रेस में दो गुट बन गया. एक इंदिरा समर्थित दूसरा राजमाता समर्थित. इंदिरा गुट के तत्कालीन मुख्यमंत्री के साथ राजमाता सिंधिया की अनबन के कारण हो गयी और 1967 में राजमाता सहित 30 विधायकों ने कोंग्रेस से इस्तीफ़ा दिया और सरकार गिर गयी. कमोबेश यही अभी मध्यप्रदेश में एक बार फिर हुआ है जब ज्योतारिद्त्य के साथ कुछ विधायकों ने कोंग्रेस से इस्तीफा दे दिया.
अगले चुनाव में राजमाता सिंधिया एक बड़े क्षत्रप के रूप में उभरी. उस समय(1967) में मध्यप्रदेश विधानसभा और राष्ट्रिय चुनाव अर्थात आमचुनाव एक साथ होने थे. राजमाता सिंधिया दोनों ही चुनाव में बतौर उम्मीदवार खड़ीं हुयीं.
मतलब एक तरफ जहां वो जनसंघ की टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ी वहीं स्वतंत्रता पार्टी की टिकट पर विधानसभा चुनाव. दोनों ही चुनाव में विजयी होने के बाद सत्ता की बागडौर एक बार फिर पूर्णरूप से राजमहल से चलने लगा. मध्यप्रदेश में पहली बार गैर कोंग्रेसी सरकार बनी. पर यह अधिक दिनों तक चला नहीं. लगभग बीस महीने बाद राजमाता का मुखौटा मुख्यमंत्री गोविन्द नारायण सिंह कोंग्रेस के खेमें में चले गये.

अब यह पूरी तरह से दो रानियों के बीच की लड़ाई बन चुकी थी. एक तरफ़ राजमाता तो दूसरी तरफ इंदिरा. सबने अपने-अपने घोरे छोड़े. राजमाता अधिकारिक रूप से जनसंघ में आ गयी तो इंदिरा गाँधी ने सभी राजवारों का न सिर्फ सरकारी भत्ता रुकवा दिया बल्कि रजवारों की अकूत संपत्तियां भी अब राज्य के अधीन आ चुकी थी.
1971 के चुनाव से पहले कोंग्रेस के दो फार हो गये थे. चुनाव में इंदिरा कोंग्रेस गरीबी हटाओ के नारे के साथ उतरी और 352 सीटें लेकर आयीं. चुनाव में इंदिरा का जादू लोगों के सर चढ़ कर बोला पर राजमाता सिंधिया की बदौलत जनसंघ ग्वालियर क्षेत्र में तीन सीटें जीतने में सफ़ल रहीं. ग्वालियर से खुद अटल बिहारी वाजपेई तो गुना और भिंड से क्रमशः राजमाता के पुत्र माधवराव और खुद राजमाता बतौर सांसद चुनीं गयीं.
इस तरह अब परिवार से दो लोग प्रत्यक्ष राजनीति में आ चुके थे. माधवराव सिर्फ 26 वर्ष की आयु में सांसद बने थे. इंदिरा भी समझ चुकी थी सीधे-सीधे ग्वालियर के किले में सेंध नहीं लगाया जा सकता था. इसीलिए इमरजेंसी के वक्त राजपरिवार को तरह-तरह की यातनाएं दी गयी. हालांकि ऐसी यातना पूरे देश को ही दी जा रही थी, पर ना देश की जनता पीछे हटी और नाही राजमाता लेकिन माधवराव टूट गये और इंदिरा के पक्ष में आकर अपनी मां से ही दगा कर बैठे. या यूँ कहें कि जिस प्रकार नेहरु ने राजमाता को कोंग्रेस में शामिल होने के लिए राजी कर लिया था उसी तरह इंदिरा ने माधवराव को. परिवार यहां से दो धरे में बंट गया.
राजमाता सहित जयपुर की महारानी गायत्री देवी जी ने पूरी इमरजेंसी तिहार जेल में ही बिताया.

अगले चुनाव में, अर्थात आपातकाल के बाद(1977) के चुनाव में लहर इंदिरा गाँधी के खिलाफ थी. माधवराव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में ग्वालियर से मैदान में थे. कोंग्रेस ने माधवराव को समर्थन दिया था पर लहर कोंग्रेस के खिलाफ़ थी इसके वाबजूद माधवराव जीत दर्ज करने में सफ़ल रहे. राजमाता चुनाव नहीं लड़ रही थी.
राजमाता सही मायने में एक समाजसेवी थी, उनके पिता सेना में थे. इस तरह बेटे का इंदिरा के सामने झुक जाना उन्हें कतई गंवारा नहीं था. राजमाता ने तो माधवराव को अपना वारिश मानने से ही इंकार कर दिया और घोषणा कर दी कि माधवराव उन्हें मुखाग्नि नहीं देगें.
1980 के चुनाव से पहले माधवराव अधिकारिक रूप से कोंग्रेस में शामिल हो गये. और तीसरी बार जीत कर सांसद बने. वही राजमाता ने इंदिरा गाँधी के विरुद्ध रायबरेली से चुनाव लड़ा था जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा था.
1984 में इंदिरा गाँधी के मौत के बाद फिर चुनाव हुआ. और यह चुनाव राजमाता के लिए संकट लेकर आया. क्योंकि कोंग्रेस ने माधवराव को ग्वालियर से उम्मीदवार बनाया जहां से अटलबिहारी मैदान में थे. अटलबिहारी का जन्म इसी शहर में हुआ था और बचपन से ही उन्हें राजपरिवार का स्नेह प्राप्त था.
राजमाता खुद चुनाव नहीं लड़ रही थी पर प्रचार वाजपेयी के पक्ष में किया लेकिन ये भी कहा कि राजघराने की इज्जत बची रहे बस. पूरे देश में इंदिरा की मृत्यु के बाद कोंग्रेस के पक्ष में लहर थी. प्रदेश की सभी सीटें कोंग्रेस के झोली में ही गयी. अटलबिहारी को भी हार का सामना करना पड़ा.
माधवराव को राजीवगाँधी की सरकार में रेल मंत्री बनने का मौका मिला.
इसी वर्ष राजमाता की बेटी वसुंधरा भी राजस्थान विधानसभा की भाजपा सदस्य बनी थी.
इस बीच माधव राव बीसीसीआई के अध्यक्ष बन गये और 1990 से 1993 तक इस पद पर रहे.
माधवराव और राजमाता आगे भी अलग-अलग ही चुनाव लड़ते रहे. राजमाता 1991 में गुना सीट से भाजपा की सांसद रही तो माधवराव एक बार फिर विजयी रहे. इस बार माधवराव को पी भी नरसिम्हा की सरकार में उड्डयन मंत्रालय मिला था. रणनीति के तहत कुछ हवाईजहाज रूस से लीज पर लिए गये थे पर एक जहाज के क्रैश होने के बाद उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया. उस हवाई दुर्घटना में किसी की मौत नहीं हुयी थी, इसके वाबजूद तत्कालीन प्रधनमंत्री ने उनका इस्तीफ़ा मंजूर कर लिया.
मंत्रिमंडल में दुबारा उनकी वापसी 1995 में शिक्षा मंत्री के रूप में हुयी तो ग्वालियर में उन्होंने IITM की स्थापना की. बाद में अटल बिहारी के मृत्यु के बाद यह संस्थान का नाम अटलबिहारी के नाम पर कर दिया गया.
1996 में उनका नाम जैन हवाला कांड में आ गया तो उन्होंने अपना इस्तीफ़ा दे दिया.
इतने में 1996 का आम चुनाव आ गया और कोंग्रेस ने एन वक्त पर माधवराव का टिकट काट दिया. यह एक प्रकार से सिन्ध्या की बेज्जती थी क्योकि सिन्ध्या अब तक कोई चुनाव हारे नहीं थे. ना सिर्फ इमरजेंसी के बाद आये विपरीत परिस्थिति में उन्होंने चुनाव(1977) जीता था बल्कि 1984 में अटलबिहारी को भारी मतों के अंतर से हराया था.
इसके वाबजूद जब टिकट कटा तो उन्होंने अपनी अलग पार्टी बनाई और एक बार फिर ग्वालियर से जीत दर्ज की.
राजमाता एक बार फिर गुना सीट से विजयी रही.
इस चुनाव के बाद किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था पर भाजपा 161 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. वाजपेयी प्रधनमंत्री बने और 16 दिन तक इस पद पर रहे. इसके बाद कुछ छोटे दलों को मिला कर संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी. इसमें माधवराव भी शामिल थे पर उन्होंने कोई भी मंत्री पद लेने से इंकार कर दिया.
1998 में माधवराव ने अपनी पार्टी का कोंग्रेस में विलय करवा लिया. पर माधवराव के लिए यह चुनाव आसान नहीं था. पूरा परिवार यहां तक कि उनके पुत्र ज्योतिरादित्य और जोयोतिरादित्य की पत्नी सब प्रचार कर रहे थे. भाजपा को उम्मीद थी कि माधवराव वापस अपनी माँ की पार्टी में आ जायेंगें पर ऐसा हुआ नहीं था इसलिए भाजपाइयों की चिढ़ और बढ़ गयी थी. भाजपाई 1984 की अटल जी के हार का बदला भी लेना था. कड़ी टक्कर में माधवराव सिर्फ़ 22 हजार वोटों से जीत पाए. राजमाता भी गुणा सीट पर विजयी रही.
माधवराव को यह अनुमान हो गया था कि ग्वालियर अब उनके लिए सेफ सीट नहीं रही
अटलबिहारी प्रधानमंत्री बने पर करीब डेढ़ वर्ष बाद जयललिता के समर्थन खींच लेने के बाद, देश में फिर चुनाव हुआ.
इस बार(1999) राजमाता चुनाव नहीं लड़ी. तो माधवराव ने ग्वालियर के बजाय गुणा से पर्चा भरा और जीत दर्ज की. अटल बिहारी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने.
जनवरी 2001 को माता स्वर्ग सिधार गयीं, उनकी इच्छा के विपरीत माधवराव ने ही उन्हें मुखाग्नि दी. लेकिन माधवराव की भी मृत्यु इस वर्ष सितंबर महीने में एक हवाई दुर्घटना में हुयी तो गुना सीट खाली हुयी और यहां से माधवराव के पुत्र ज्योतारिदित्य सांसद बने.
इतिहास चंद अभिजात्य वर्गीय प्रेक्षकों और अध्य्ताओं के मन की उपज है. चुकि अध्येता अपने विशेष उद्देश्य के लिए इतिहास लेखन में संलग्न होते इसलिए इसमें पूर्वाग्रह मौजूद होता है. सिन्धीया परिवार भी ऐसी इतिहास लेखन का शिकार रहा है.
इस सच से मुंह तो नहीं मोड़ा जा सकता कि 1857 की क्रांति में, इस राजघराने लक्ष्मीबाई का साथ नहीं दिया था. इसका ये मतलब तो कतई नहीं है कि या राजपरिवार गद्दार था.
शिंदे(सिंधिया शिंदे का ही अंग्रेजी वर्जन है) परिवार मराठाओं का वंश है और भला मराठा कैसे कायर हो सकता है?
बात 1785 की है, उस दौरान राघोगढ़ के राजा थे बलवंत सिंह। पहले तो वो पेशवा के सामने सिर झुकाते थे, लेकिन बाद में उन्होंने गद्दारी का रास्ता चुना। जब अंग्रेजों और महादजी शिंदे के बीच युद्ध हुआ (पहला मराठा-अंग्रेजी युद्ध), तब बलवंत ने ब्रिटिश का पक्ष लिया। गुस्साए महादजी शिंदे ने 1785 में अम्बाजी इंगले के नेतृत्व में एक भारी सेना राघोगढ़ भेजी और गद्दारी का सबक सिखाया। राजा बलवंत सिंह और उनके बेटे जय सिंह को बंदी बना लिया गया। इसके बाद जयपुर और जोधपुर के राजपुर घराने लगातार महादजी पर दबाव बनाने लगे कि वो राघोगढ़ राजपरिवार को पुनर्स्थापित करें। दोनों राजघराने राघोगढ़ राजपरिवार के रिश्तेदार थे। महादनी ने आखिर में उनकी माँगें मान ली।
बाद में दौलत राव सिंधिया ने भी राघोगढ़ को हराया और उसे ग्वालियर स्टेट के अंतर्गत ले आए। उस समय तक अंग्रेजों और ग्वालियर के बीच समझौते पर हस्ताक्षर हो चुके थे। जय सिंह अंग्रेजों के प्रति काफ़ी अच्छी राय रखता था। कहता था कि अंग्रेज जहाँ भी जाएँगे, सफल होंगे और सिंधिया का विनाश हो जाएगा। लेकिन, सच्चाई ये है कि महादजी शिंदे और दौलत राव सिंधिया, दोनों ने ही अपने-अपने समय में राघोगढ़ के राजाओं को परास्त किया। ये वही राजघराना है, जिससे मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ताल्लुक रखते हैं।
इतिहास का पन्ना इस प्रकार खुलने लगे तो कोई नहीं बचेगा शायद. गांधी ने भी अंग्रेजों का साथ दिया था, सुभाषचंद्रबोस के भी हिटलर से रिश्ते थे, सावरकर भी जेल से निकलने के बाद सीधे-सीधे अंग्रेज से नहीं टकराए. नेहरु जी....!!!सवाल तो ये उठेगा कि आज आप किस पाले में हैं. भाजपा के किसी बड़े नेता ने तो ज्योतिरादित्य पर कभी ऐसा आक्षेप नहीं लगाया. लेकिन संभव है कि अब जब महराज भाजपा में शामिल हो गये हैं तो इतिहास के पन्नों को फिर खंगाला जायेगा. पर यह ध्यान रहे कि दिग्विजय का भी ताल्लुक राघोगढ़ राजघराने से है, जिसने सिंधिया और अंग्रेजों के बीच युद्ध में अंग्रेजों का समर्थन किया था.
इस सब के बावजूद ज्योतिरादित्य का वर्तमान उनके इतिहास को तो नहीं बदल सकता. वो भाजपा में आ गये हैं. इसी के साथ उनका रिश्ता अब गाँधी हत्याकांड से भी जुड़ेगा क्योंकि फ़ौरी तौर पर ही सही पर माना जाता है कि नाथूराम ने जिस बन्दुक से महात्मां गाँधी की हत्या की थी उसका संबन्ध ग्वालियर से था. लेकिन अब तक ये सवाल बंद थे. यदि सिद्ध ना होने के बावजूद यह मान लिया जाय कि उस बन्दुक का संबंध ग्वालियर से था तो क्या कुछ बदल जायेगा?
क्योंकि माना तो यह भी जाता है कि चुकि गाँधी कोंग्रेस को भंग करना चाहते थे इसलिए नहरू ने समय रहते उनका काम तमाम करवा दिया.
वैसे भी मौत के ऐसे कई अनसुलझे राज सुलझने बांकी हैं, जिसमें लालबहादुर शास्त्री की मौत, सुभाषचंद्रबोस की मौत, संजय गाँधी की मौत आदि प्रमुख हैं. यहां तक कि हाल के वर्षों में सचिन पायलट के पिता राजेश पायलट(2000, 55 वर्ष) और खुद ज्योतारादित्य के पिता माधवराव की मौत(2001, 56 वर्ष) कई सवाल छोड़ते हैं.
ये मरे निजी विचार हैं-
ज्योतारादित्य का कोंग्रेस में आना तात्कालिक रूप से उन्हें फ़ायदा पहुंचा रहा है संभव है कि
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