DELHI RIOT LEGAL AND NUMERICALS
जो लोग दिल्ली दंगे के लिए गृह मंत्री अमित शाह और दिल्ली पुलिस को जिम्मेदार मानते हैं, आईये उसका क़ानूनी पहलू और कुछ आकड़ों को समझें.
पहले क़ानूनी पहलु :
पुलिस कभी भी हथियार बंद लोगों का सामना नहीं कर सकती फिर उसके लिए दंगा नियंत्रक वज्र वाहनों को ही क्यूँ ना बुला लिया जाय. ऐसे दंगे या तो खुद रुकते हैं जब एक पक्ष दूसरे पर पूरी तरह हावी हो जाता है या फिर देखते ही दंगाइयों को गोली मारने का आदेश दिया जाता है. अंतिम विकल्प आर्मी को बुलाना होता है. दिल्ली में इससे पहले 1984 में आर्मी बुलाई गयी थी. पर उस समय दिल्ली में मुख्यमंत्री नहीं होता था, तब दिल्ली पुर्णतः केंद्रशासित प्रदेश हुआ करती थी तो सारी जिम्मेदारी केंद्र सरकार के पास ही थी.
1993 से चीजें बदली जब दिल्ली को भी राज्य का दर्जा मिला पर अन्य राज्यों के उलट यहाँ पर कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के पास ही रही. अन्य राज्यों में डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट के पास किसी भी गैर-क़ानूनी भीड़ को सँभालने की जिम्मेदारी होती है(सी. आर. पी. सी. का सेक्सन 129 और 130 पढ़ें).
Cr. P. C. के सेक्सन 129 के अनुसार डीएम् पुलिस से किसी गैर-क़ानूनी भीड़ को हटाने का आदेश देता है पर यदि पुलिस ऐसा करने में नाकाम होती है तो सेक्सन 130 का उपयोग करते हुए केंद्र से आर्मी का उपयोग करने की प्रार्थना कर सकता है. वदित हो कि डिएम राज्य सरकार के अन्दर आता है तो डीएम् का कोई भी रिक्वेस्ट राज्य के मुख्यमंत्री से होकर ही केंद्र तक जाता है.
तत्पश्चात केंद्र ऐसे मामलों में आर्मी को हस्तक्षेप करने का आदेश देती है. हालाँकि डीएम् यह रिक्वेस्ट सीधे आर्मी के एरिया कमांडर से करता है पर आर्मी बिना केंद्र के आदेश के हस्तक्षेप नहीं कर सकती.
अब आते हैं दिल्ली पर. दिल्ली राज्य का गठन 1991 में संविधान की धारा 239AA और 239AB के तहत हुआ.
दिल्ली सरकार का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम, 1991 के अनुसार दिल्ली में कानून बनाने और प्रशासन की जिम्मेदारी विधानसभा अर्थात राज्य को दी गयी लेकिन सार्वजनिक व्यवस्था केन्द्रीय गृह मंत्री के जिम्मे रहा. पर ऊपर चर्चा की गयी Cr. P. C की दो धाराएं दिल्ली सरकार के पास ही रही.
क्योंकि डीएम् राज्य के अधीन होता है तो सारी जिम्मेदारी राज्य की ही होगी. डीएम् राज्य के मुख्यमंत्री से अनुशंसा करेगा और फिर मुख्यमंत्री उस अनुशंसा को केंद्र के गृह मंत्रालय के पास भेजेगा.
ये देखने से पहले कि ऐसा हुआ या नहीं हम कुछ आकड़ों और तथ्यों को देख लेते हैं.
दिल्ली की कुल जनसँख्या लगभग 2 कड़ोर है जिसपर अधिकतम 90 हजार पुलिस है. इस तरह हर 1 लाख की जनसँख्या पर 380 पुलिस हैं. यूएन के हिसाब से यह संख्या 222 होना चाहिए. मतलब दिल्ली में प्रयाप्त पुलिस की संख्या है.
ध्यान देने वाली यह है कि जबसे नागरिकता संसोधन अधिनियम आया है, दिल्ली कुछ कुछ कश्मीर घाटी बना हुआ है. इसलिए जनसँख्या और पुलिस के अनुपात का तुलना कश्मीर से करना बेहतर होगा. कश्मीर में 1 लाख की जनसँख्या पर 627 पुलिस है . कश्मीर पुलिस के उलट दिल्ली पुलिस को इतने बड़े स्तर पर हथियार बंद दंगाईयों से निपटने का अनुभव भी नहीं है.

एक विकल्प दूसरे राज्यों से पुलिस मंगाने का हो सकता है पर दूसरे राज्यों की स्थिति भी कुछ अच्छी नहीं है. खास कर उक्त कानून के बाद तो हर राज्य की पुलिस स्टैंड बाई मोड पर ही रहती है. दिल्ली के पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश और हरियाणा में नागरिक-पुलिस का अनुपात प्रति 1 लाख नागरिक पर क्रमशः 90 और 165 है, जो कि तय मानक से काफी कम है.
मुख्य रूप से क़ानूनी पहलू और आकड़े यहीं समाप्त हुए आगे मेरे अपने विचार हैं.
आकड़े व तथ्य और भी हो सकते हैं पर वापस चलते हैं क़ानूनी पहलु पर, जिसका विवरण पहले ही दिया जा चुका है. कानून के अनुसार आर्मी या अर्द्धसैनिक बल बुलाने के लिए पहले डीएम् मुख्यमंत्री से और फिर मुख्यमंत्री केन्द्रीय गृह मंत्री से इसकी अनुसंसा करेंगें. दिल्ली के मुख्यमंत्री ने यह करते हुए काफी देर कर दिया.
24 फ़रवरी को दंगा भड़कने के बाद 25 फ़रवरी को मुख्यमंत्री अपने कुछ विधायकों और मंत्रियों के साथ राजघाट चले गये. अव्वल तो उन्हें अपने मंत्रियों के साथ लोगों के बीच जाना चाहिए था. पर ये तो दूर उन्होंने क़ानूनी प्रक्रिया भी पूरी नहीं की, और राजघाट पर जाकर अगले गाँधी बनने लगे.
जो क़ानूनी प्रक्रिया उन्हें पहले पूरा करना चाहिए था उसे लेकर वो बस राजनीति करते रहे. सार्वजनिक रूप से तो आर्मी उतारने की वकालत करते रहे पर इसकी लिखित अनुशंसा दंगा भड़कने के 2 दिन बाद किया गया.
केजरीवाल के ट्विट में देखा जा सकता है कि उन्होंने ने गृहमंत्री को लिखा नहीं है बल्कि वो ऐसा करने जा रहे हैं.
इस सबके बाद भी इसे रोका जा सकता था यदि अमित शाह चाहते तब. पर इसके लिए उन्हें वो कदम उठाना पड़ता जो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होता. अमितशाह संविधान के अनुच्छेद 356 का प्रयोग कर सकते थे. मतलब राष्ट्रपति शासन.
ये एक प्रकार का आपातकाल ही होता पर वदित हो कि इसका प्रयोग देश में अब तक 20 बार से अधिक हुआ है.
पहले क़ानूनी पहलु :
पुलिस कभी भी हथियार बंद लोगों का सामना नहीं कर सकती फिर उसके लिए दंगा नियंत्रक वज्र वाहनों को ही क्यूँ ना बुला लिया जाय. ऐसे दंगे या तो खुद रुकते हैं जब एक पक्ष दूसरे पर पूरी तरह हावी हो जाता है या फिर देखते ही दंगाइयों को गोली मारने का आदेश दिया जाता है. अंतिम विकल्प आर्मी को बुलाना होता है. दिल्ली में इससे पहले 1984 में आर्मी बुलाई गयी थी. पर उस समय दिल्ली में मुख्यमंत्री नहीं होता था, तब दिल्ली पुर्णतः केंद्रशासित प्रदेश हुआ करती थी तो सारी जिम्मेदारी केंद्र सरकार के पास ही थी.
1993 से चीजें बदली जब दिल्ली को भी राज्य का दर्जा मिला पर अन्य राज्यों के उलट यहाँ पर कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के पास ही रही. अन्य राज्यों में डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट के पास किसी भी गैर-क़ानूनी भीड़ को सँभालने की जिम्मेदारी होती है(सी. आर. पी. सी. का सेक्सन 129 और 130 पढ़ें).
Cr. P. C. के सेक्सन 129 के अनुसार डीएम् पुलिस से किसी गैर-क़ानूनी भीड़ को हटाने का आदेश देता है पर यदि पुलिस ऐसा करने में नाकाम होती है तो सेक्सन 130 का उपयोग करते हुए केंद्र से आर्मी का उपयोग करने की प्रार्थना कर सकता है. वदित हो कि डिएम राज्य सरकार के अन्दर आता है तो डीएम् का कोई भी रिक्वेस्ट राज्य के मुख्यमंत्री से होकर ही केंद्र तक जाता है.
तत्पश्चात केंद्र ऐसे मामलों में आर्मी को हस्तक्षेप करने का आदेश देती है. हालाँकि डीएम् यह रिक्वेस्ट सीधे आर्मी के एरिया कमांडर से करता है पर आर्मी बिना केंद्र के आदेश के हस्तक्षेप नहीं कर सकती.
अब आते हैं दिल्ली पर. दिल्ली राज्य का गठन 1991 में संविधान की धारा 239AA और 239AB के तहत हुआ.
दिल्ली सरकार का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम, 1991 के अनुसार दिल्ली में कानून बनाने और प्रशासन की जिम्मेदारी विधानसभा अर्थात राज्य को दी गयी लेकिन सार्वजनिक व्यवस्था केन्द्रीय गृह मंत्री के जिम्मे रहा. पर ऊपर चर्चा की गयी Cr. P. C की दो धाराएं दिल्ली सरकार के पास ही रही.
क्योंकि डीएम् राज्य के अधीन होता है तो सारी जिम्मेदारी राज्य की ही होगी. डीएम् राज्य के मुख्यमंत्री से अनुशंसा करेगा और फिर मुख्यमंत्री उस अनुशंसा को केंद्र के गृह मंत्रालय के पास भेजेगा.
ये देखने से पहले कि ऐसा हुआ या नहीं हम कुछ आकड़ों और तथ्यों को देख लेते हैं.
दिल्ली की कुल जनसँख्या लगभग 2 कड़ोर है जिसपर अधिकतम 90 हजार पुलिस है. इस तरह हर 1 लाख की जनसँख्या पर 380 पुलिस हैं. यूएन के हिसाब से यह संख्या 222 होना चाहिए. मतलब दिल्ली में प्रयाप्त पुलिस की संख्या है.
ध्यान देने वाली यह है कि जबसे नागरिकता संसोधन अधिनियम आया है, दिल्ली कुछ कुछ कश्मीर घाटी बना हुआ है. इसलिए जनसँख्या और पुलिस के अनुपात का तुलना कश्मीर से करना बेहतर होगा. कश्मीर में 1 लाख की जनसँख्या पर 627 पुलिस है . कश्मीर पुलिस के उलट दिल्ली पुलिस को इतने बड़े स्तर पर हथियार बंद दंगाईयों से निपटने का अनुभव भी नहीं है.

एक विकल्प दूसरे राज्यों से पुलिस मंगाने का हो सकता है पर दूसरे राज्यों की स्थिति भी कुछ अच्छी नहीं है. खास कर उक्त कानून के बाद तो हर राज्य की पुलिस स्टैंड बाई मोड पर ही रहती है. दिल्ली के पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश और हरियाणा में नागरिक-पुलिस का अनुपात प्रति 1 लाख नागरिक पर क्रमशः 90 और 165 है, जो कि तय मानक से काफी कम है.
मुख्य रूप से क़ानूनी पहलू और आकड़े यहीं समाप्त हुए आगे मेरे अपने विचार हैं.
आकड़े व तथ्य और भी हो सकते हैं पर वापस चलते हैं क़ानूनी पहलु पर, जिसका विवरण पहले ही दिया जा चुका है. कानून के अनुसार आर्मी या अर्द्धसैनिक बल बुलाने के लिए पहले डीएम् मुख्यमंत्री से और फिर मुख्यमंत्री केन्द्रीय गृह मंत्री से इसकी अनुसंसा करेंगें. दिल्ली के मुख्यमंत्री ने यह करते हुए काफी देर कर दिया.
24 फ़रवरी को दंगा भड़कने के बाद 25 फ़रवरी को मुख्यमंत्री अपने कुछ विधायकों और मंत्रियों के साथ राजघाट चले गये. अव्वल तो उन्हें अपने मंत्रियों के साथ लोगों के बीच जाना चाहिए था. पर ये तो दूर उन्होंने क़ानूनी प्रक्रिया भी पूरी नहीं की, और राजघाट पर जाकर अगले गाँधी बनने लगे.
जो क़ानूनी प्रक्रिया उन्हें पहले पूरा करना चाहिए था उसे लेकर वो बस राजनीति करते रहे. सार्वजनिक रूप से तो आर्मी उतारने की वकालत करते रहे पर इसकी लिखित अनुशंसा दंगा भड़कने के 2 दिन बाद किया गया.
केजरीवाल के ट्विट में देखा जा सकता है कि उन्होंने ने गृहमंत्री को लिखा नहीं है बल्कि वो ऐसा करने जा रहे हैं.

इस सबके बाद भी इसे रोका जा सकता था यदि अमित शाह चाहते तब. पर इसके लिए उन्हें वो कदम उठाना पड़ता जो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होता. अमितशाह संविधान के अनुच्छेद 356 का प्रयोग कर सकते थे. मतलब राष्ट्रपति शासन.
ये एक प्रकार का आपातकाल ही होता पर वदित हो कि इसका प्रयोग देश में अब तक 20 बार से अधिक हुआ है.
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