जिन्होंने भी दिल्ली की मेट्रो और मुबई की लोकल की सेवा ली होगी उन्हें तो फ़र्क पता है. पर फ़िर भी कोई तुलना की गुंजाइश बची हो तो दिल्ली में राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर जो 'युद्ध' शाम में 3-5 बजे के बीच होता है मुबई की लोकल के वह इतना आम है कि इस युद्ध में हर दिन 10 से अधिक लोगों की मौत इतनी निश्चित होती है कि इसे चाह कर भी टाला नहीं जा सकता.
मेट्रो जितनी सुरक्षित है, लोकल के खुले दरवाजे उसे उतनी ही असुरक्षित बनाते हैं. परिचालन में भी अंतर है. मेट्रो में एक रूट के लिए एक ट्रेन ही प्रयाप्त है जबकि लोकल में सामन्यतः एक ट्रेन तो बदलनी ही पड़ती है, फ़ास्ट और स्लो, कभी-कभी इससे भी अधिक.
मेट्रो में चढ़ना-उतरना इतना आसान होता है कि कोई फ़ोन का उपयोग करता हुआ ऐसा कर सकता, मुबई के लोकल में ऐसा करना दुर्घटना को दावत देने जैसा है.
सवाल यह भी है कि यदि दुर्घटना ही मुद्दा है तो सभी ट्रेनों को मेट्रो जैसा ही क्यूँ नहीं बना दिया जाता? यह सवाल अभी मुद्दा नहीं है लेकिन मेट्रो में माल-ढुलाई मुश्किल है तो इसकी 'कोस्ट इफिसियंसी' भी तभी हो सकती है जब इसकी फ्रिक्वुन्सी घंटे भर का हो या उससे नीचे का हो और मार्ग में कोई रेलवे क्रोसिंग ना आये. इसके आलावे भारत सरकार की आर्थिक मज़बूरी और आम लोगों के लिए यात्रा खर्च वहन करना मुश्किल हो जायेगा. कुछ चीजों को छोड़ दिया जाय तो नई नवेली तेजस ट्रेनें और ट्रेन18 कई मामलों में मेट्रो जैसी ही हैं.
पर मुबई में मेट्रो?
अब तक मुंबई में मेट्रो सीमित जगहों पर ही उपलभ्द है. मुबई के लोग जितने अनुशासन प्रिय हैं उन्हें मेट्रो तो दिल्ली से भी पहले मिलनी चाहिये.
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