कोई भी ऐसा मौका मत छोड़ो जिसमें मौका छोड़ने का मौका हो - नेहरु

'डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया' के लेख़क को भारत से कितना लगाव था, यह उनकी लिखी पुस्तक पढ़ कर पता कर पाना मुश्किल है. उसमें कमोबेश वही लिखा है जो आज के अर्बन नक्सल टाइप लोग अक्सर बोलते हैं जिनका लिटमस टेस्ट करीब-करीब हर दिन हो ही जाता है. हाँ उनके भारत प्रेम को लेकर संशय की गुंजाइश भी खूब है पर जवाहरलाल नेहरू को भारतियों से प्रेम नहीं था इस बात में किसी को शक नहीं होना चाहिए क्योंकि 15 सितम्बर 1910 को पिता के नाम लिखे चिट्ठी में उन्होंने साफ़ साफ़ कहा कि वो भारितियों की संख्या में इजाफ़ा होने के कारण कम्ब्रिज विश्वविद्यालय छोड़ कर ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में नामांकन करवाना चाहते हैं.
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इग्नू में सेंटर फॉर फ्रीडम स्ट्रगल एंड डायस्पोरा स्टडीज के डायरेक्टर कपिल कुमार की पुस्तक को पढ़ कर मोतीलाल और जवाहरलाल के कारनामे को विस्तार से जाना जा सकता है. हालाँकि उपरोक्त सन्दर्भ सिलेक्टेड वर्क ऑफ़ जवाहरलाल के पहले भाग से लिया गया जिसे ऑनलाइन भी पढ़ा जा सकता है.



अब सवाल है कि जब इस महान आत्मा को भारतियों से ही नफ़रत था वो खुद भारतियों के लिए कितना भला कर पायेगा? ऐसा करना तो दूर क्या वो ऐसा सोंच भी पायेंगें? क्या वो राष्ट्रवाद को वो कभी भारत के लिए अच्छा कहेंगें?Image





इस सबके वाबजूद यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि क्यों नेहरु मरते दम तक भारतीय राजनीति के शीर्ष नेता बने रहे. सूचना क्रांति के इस दौर में जब राहुल-सोनिया-प्रियंका लोगों की आँखों में धूल झोंक सकने में सक्षम हैं तो उस समय तो सूचना का प्रसार सरकार या यूँ कहें कि नेहरु और कुछ हद तक महात्मां गाँधी के हाथ में ही था. आम लोग उसी को असलियत मानते थे जो गाँधी और नेहरु के मुंह से निकलता था. इसलिए सत्ता में बने रहने के लिए तो उन्हें सोनियां जितनी भी मेहनत नहीं करनी पड़ी.


आज जब पांच प्रतिशत के विकास दर को हम अच्छा नहीं मानते, नेहरु के कार्यकाल में भारत बमुश्किल 3 प्रतिशत के विकास दर से आगे बढ़ा. भले आज के आर्थिक समस्या के लिए नेहरु को कतई जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है पर भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी नेहरु सरकार ने हर उस मौके को छोड़ा जहाँ उन्हें छोड़ने का मौका मिला.


भारत विश्व का पहला देश था जिसने जनसँख्या नीति बनाई. लेकिन नेहरु के जीते जी उस पर कोई कार्य नहीं हुआ. पहली बार अनैच्छिक रूप से इस विषय से सम्बंधित नीति को 1977 में लागू किया. हाँ इससे पहले आपातकाल(1975) के दौरान इंदिरा गाँधी ने बड़ी संख्या में पुरुषों का जबरदस्ती बंध्याकरण जरुर करवाया था. प्रश्न यह है कि क्या जनसँख्या विस्फ़ोट का अर्थव्यवस्था से कोई लेना देना नहीं है और वो भी जब यह एक धर्म विशेष के कारण हो रहा हो, जो मुख्य रूप से या तो निरक्षर रहना पसंद करती है या फ़िर मदरसों का सफ़र ही पूरा कर पाती है.


आज आसियान एक सफ़ल संगठन की तरह उभर कर सामने आया है, जिसके साथ भारत सहित हर देश हाथ मिलाना चाहता है. 10 देशों का यह समूह ना सिर्फ़ आंशिक रूप से परमाणु हथियारों से दूर है बल्कि इसके बावजूद इसका ना किसी के साथ सीमा विवाद है और ना ही कोई वैश्विक मजबूरियां. यह इतना सफल है कि कई बार इसे शांति का नोबेल पुरुष्कार देने की बातें उठती रहती है.

1961 में जब आसियान का गठन अपने प्रारंभिक रूप में था तो नेहरु नॉन अलाइन मोवमेंट को लेकर इंडोनेशिया और युगोस्लाविया के साथ अलग डफली बजाने में लगे थे. जबकि इंडोनेसिया के तत्कालीन राष्ट्रपति सुकर्णों ने ही आसियान के स्थापना में मुख्य भूमिका निभाई थी और नेहरु उन्हें अपना दोस्त भी बताते थे. जाहिर है कि नहरू की यदि थोड़ी भी दिलचस्पी आसियान की सदस्यता लेने में होती तो बिना किसी अवरोध के वह मुमकिन था. क्योंकि आसियान सरीखे किसी भी वैश्विक संगठन को यदि भारत जैसे देश का साथ मिलता तो उसे दूसरे राष्ट्रों से जल्दी मान्यता मिलती और फिर भौगोलिक दृष्टि से भी भारत के स्थिति आसियान के अनुरूप ही है. शायद भारत के साथ श्रीलंका में भी इसमें शामिल हो गया होता और यह गुट निरपेक्ष आन्दोलन से अलग यूरोपियन यूनियन सरीखा संगठन होता.



पर रविश्या स्टाइल में इन सब के ऊपर अंदाजा लगाने से कोई फ़ायदा तो नहों है पर इससे यह तो सिद्ध होता है कि नेहरु को दूरदर्शी कहना, कुत्ते को बाघ करने जैसा ही है.

नेहरु यहीं नहीं रुकते हैं बल्कि यह सब तो उन्होंने ने बाद में नहीं किया उसका ब्यौरा है. चीन के साथ सीमा विवाद को सुलझाने के बजाय नेहरु चीन द्वारा 1962 के युद्ध के दौरान किये गये अवैध कब्जे को यह कर कर टालते रहे कि चीन ने बंजर भूमि पर कब्ज़ा किया जिसके बारे में भारत को चिंता नहीं करनी चाहिए.

इससे पहले भी जब अमेरिका द्वारा भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थायी सदस्यता की पेशकश को नेहरू ने ठुकराया तब ऐसा लगा था कि नेहरु जितना भारतियों से नफ़रत करते हैं वो चीन से उतना ही प्रेम करते हैं. बाद में पंचशील के माध्यम से उन्होंने इसमें और बढ़ोतरी की पर चीन ने भारत पर हमला कर अपना ब्रेक-अप प्लान बता दिया. चीन ने यह सब संयुक्त राष्ट्रसंघ का स्थायी सदस्य रहते हुए किया जबकि संयुक्तराष्ट्र का मुख्य कार्य शांति बहाल करना ही है. इसके बावजूद जो नेहरु पलक झपकते ही कश्मीर मुद्दे को यूएन लेकर चले गये थे, वो भारत पर हमला करने बाद भी उस वक्त चीन का यूएन में कुछ बिगाड़ नहीं पाए.


इस सब के बावजूद नहरू को काबिल और दूरदर्शी कहना कैसे लोगों को रास आ जाता है और ये कैसे लोग हैं जो निर्लज्जता से नेहरु के हरेक फ़ैसले को सही ठहराते थकते नहीं.  जबकि नेअहरू ऐसा कोई मौका नहीं छोड़ते थे जिसमें उन्हें उस मौके को छोड़ने का मौका हो.

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