आम दर्शकों के लिए मनोरंजन के मायने
1955 में आई फ़िल्म श्री 420 का गाना, 'मेरा जूता है जापानी, ये पतलून...टोपी रुसी.. फ़िर भी दिल है हिन्दुस्तानी', उस काल खंड को खूब प्रतिबिंबित करता है. जब गाँधी टोपी लाचारी और मक्कारी का प्रतीक था तो हम फ़ैशन में बने रहने के लिए विदेशी कपड़ों के पीछे भागते थे. मोहम्मद युसूफ खान उर्फ़ दिलीप कुमार अभिनीत सगीना का गाना, 'साला मैं तो साहब बन गया.... ये सूट.. बूट.. जैसे कोई लन्दन का छोरा', बताता है कि 1975 में भी बहुत कुछ बदला नहीं था. यहाँ तक कि 2007 में आई ओम शांति ओम का हिट गाना 'दिल में मेरे हैं दर्द डिस्को' के कुछ बोल लन्दन पेरिस और सैन्फंसिसको से होकर आ जाते हैं.
बोलीवुड को जब कभी झुमका गिरना हुआ तो उसने बरेली के बाजार को चुना. यूपी-बिहार को लूटने के बाद कभी समय मिला तो आई लव माई इंडिया भी गाया गया. इतने सालों बाद बहुत कुछ बदला ये कहना तो मुश्किल है पर अब लाहोर का नाम गानों में बड़े सलीके से लिया जाता है. लौंडों को देशी होने से गुरेज नहीं है, वहीं 'मेड इन इण्डिया लगदी हैं.. ब्रांडेड तेरे कपड़े नी' काफ़ी कुछ कह जाती है, वरना मोरियों को 'दिल चाहिए दट्स मेड इन इण्डिया' चिल्लाना पड़ता था. अब लन्दन यदि गानों में आता है तो उसका और कोई मतलब नहीं होता.
बदलते भारतीय समाज के स्वरुप का छाप भारतीय गानों में मिल रहा है, थोड़ा बहुत फिल्मों में भी, पर विदेशी फिल्मो और गानों से भारतियों की नजदीकियां उतनी ही बढ़ी है. ऐसे में अदद बाहुबली और दंगल हमें कुछ दूर तक बचा ले जाती है, वर्ना चीन की तो अपनी कोई फ़िल्म इंडस्ट्री बची ही नहीं. हालांकि भारतीय फ़िल्म उद्योग का नामांकरण भी होलीवुड के तर्ज पर ही हुआ है. बोम्बे से बोलीवुड, तमिलनाडु से टोलीवूड, भांलिवुड इत्यादि पर इसी तर्ज पर चीनी फिल्मों उद्योग का नामांकरण करने के बाद भी वो भारतीय फिल्म उद्योग से काफ़ी पीछे हैं और चीनी फिल्जो में कुछ अच्छा या बेहतरीन हो रहा है वो होलीवुड के नाम पर.
चीन के तर्ज पर ही भारत की फ़िल्में अब विदेशी हाथों में जाने को बेताब हैं. क्योंकि फ़िल्म अब सिर्फ़ फिल्मों तक ही रुकी नहीं, वो वेब्सेरिज और शोर्टफ़िल्म के माध्यम से अपने आप को खूब भुनाती है. नेटफ्लिक्स, अमेजन और हॉटस्टार बेहतर कंटेंट दे रही है तो भारतीय स्वामित्व वाली स्ट्रीमिंग वेबसाइट जी5, ऑल्टबालाजी उन्हें आसान रास्ता दे रही. और ये करें भी क्या जब बालाजी के बैनर तले राज कुमार राव अभिनीत 'बोस : डेड/अलाइव' बनती है तो आम दर्शकों का प्यार उन्हें मिलता नहीं और खास तो सेक्रेड गेम्स देखने में व्यस्त है. फ़िर इन्हें गेम्स ऑफ़ थ्रोंस भी देखना रहता है. बीच-बीच में अवेंजर्स और स्पाइडरमैन भी तो आ जाता है बड़े परदे पर.
ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान, कलंक, स्टूडेंट ऑफ़ द इयर से त्रस्त आम दर्शकों को येन-केन-प्रकारेण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मनोरंजन के लिए विदेशी पादुकाओं को उनका दाम देकर चाटना ही पड़ता है. और यदि मणिकर्णिका, उरी, मेरे प्यारे प्राइममिनिस्टर, ताशकंतफाइल्स आ जाये तो उन्हें खास लोगों का दंस भी झेलना होता है. इन खास लोगों को गैंग्स ऑफ़ वास्सेय्पुर और सेक्रेड गेम्स में तो सब कुछ ठीक लगता है पर कबीर सिंह पर एकाएक इनकी भाहें तन जाती है.
खास लोगों के बिगरने और फिर बिगर कर ना सुधरने की कुछ खास वजहें हो सकती है. हालाँकि इनमें से बहुत अपने आप को खास बनाने और दिखाने के चक्कर में बिगर जाते हैं, पर होते ये मूर्ख ही हैं. पर आम लोग संख्या और तजुर्बा में अधिक होने के बाद भी इन खास मूर्खों के पीछे-पीछे क्यों जाते हैं.
आम लोगों ने बस फिल्म देखी, अच्छी लगी या नहीं लगी टिकट के पैसे या स्ट्रीमिंग वेबसाइट का सुब्स्क्रिप्सन चार्ज देना है, उसके बाद बस अब और नहीं. समय नहीं है भैया. इतना भी समय नहीं कि फेसबुक पर लिख दूँ कि मणिकर्णिका देखी अच्छी लगी. ये कैसे? यह तो राजीव मसंद कर ही देता, उससे भी आगे काफ़ी कुछ कर देता है. इतना कि कोई फिल्म बिगरते-बिगरते संभल जाये और कोई संभल कर भी चौपट हो जाये. पर आम लोगों को वह कारण ढूँढना होगा कि राजीव मसंद ने ताशकंत फाइल्स और मेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर को रिव्यु क्यूँ नहीं किया?
और जब तक संतोषजनक जवाब नहीं मिल जाए, देखी गयी फिल्म के बारे में एक लाइन ही सही, फेसबुक-व्ह्त्सप्प पर लिखिए. शायद आपका एक दो-लाइन भारतीय मनोरंजन उद्योग को विदेशी गिरफ़्त में जाने से बचा ले.
बोलीवुड को जब कभी झुमका गिरना हुआ तो उसने बरेली के बाजार को चुना. यूपी-बिहार को लूटने के बाद कभी समय मिला तो आई लव माई इंडिया भी गाया गया. इतने सालों बाद बहुत कुछ बदला ये कहना तो मुश्किल है पर अब लाहोर का नाम गानों में बड़े सलीके से लिया जाता है. लौंडों को देशी होने से गुरेज नहीं है, वहीं 'मेड इन इण्डिया लगदी हैं.. ब्रांडेड तेरे कपड़े नी' काफ़ी कुछ कह जाती है, वरना मोरियों को 'दिल चाहिए दट्स मेड इन इण्डिया' चिल्लाना पड़ता था. अब लन्दन यदि गानों में आता है तो उसका और कोई मतलब नहीं होता.
बदलते भारतीय समाज के स्वरुप का छाप भारतीय गानों में मिल रहा है, थोड़ा बहुत फिल्मों में भी, पर विदेशी फिल्मो और गानों से भारतियों की नजदीकियां उतनी ही बढ़ी है. ऐसे में अदद बाहुबली और दंगल हमें कुछ दूर तक बचा ले जाती है, वर्ना चीन की तो अपनी कोई फ़िल्म इंडस्ट्री बची ही नहीं. हालांकि भारतीय फ़िल्म उद्योग का नामांकरण भी होलीवुड के तर्ज पर ही हुआ है. बोम्बे से बोलीवुड, तमिलनाडु से टोलीवूड, भांलिवुड इत्यादि पर इसी तर्ज पर चीनी फिल्मों उद्योग का नामांकरण करने के बाद भी वो भारतीय फिल्म उद्योग से काफ़ी पीछे हैं और चीनी फिल्जो में कुछ अच्छा या बेहतरीन हो रहा है वो होलीवुड के नाम पर.
चीन के तर्ज पर ही भारत की फ़िल्में अब विदेशी हाथों में जाने को बेताब हैं. क्योंकि फ़िल्म अब सिर्फ़ फिल्मों तक ही रुकी नहीं, वो वेब्सेरिज और शोर्टफ़िल्म के माध्यम से अपने आप को खूब भुनाती है. नेटफ्लिक्स, अमेजन और हॉटस्टार बेहतर कंटेंट दे रही है तो भारतीय स्वामित्व वाली स्ट्रीमिंग वेबसाइट जी5, ऑल्टबालाजी उन्हें आसान रास्ता दे रही. और ये करें भी क्या जब बालाजी के बैनर तले राज कुमार राव अभिनीत 'बोस : डेड/अलाइव' बनती है तो आम दर्शकों का प्यार उन्हें मिलता नहीं और खास तो सेक्रेड गेम्स देखने में व्यस्त है. फ़िर इन्हें गेम्स ऑफ़ थ्रोंस भी देखना रहता है. बीच-बीच में अवेंजर्स और स्पाइडरमैन भी तो आ जाता है बड़े परदे पर.
ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान, कलंक, स्टूडेंट ऑफ़ द इयर से त्रस्त आम दर्शकों को येन-केन-प्रकारेण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मनोरंजन के लिए विदेशी पादुकाओं को उनका दाम देकर चाटना ही पड़ता है. और यदि मणिकर्णिका, उरी, मेरे प्यारे प्राइममिनिस्टर, ताशकंतफाइल्स आ जाये तो उन्हें खास लोगों का दंस भी झेलना होता है. इन खास लोगों को गैंग्स ऑफ़ वास्सेय्पुर और सेक्रेड गेम्स में तो सब कुछ ठीक लगता है पर कबीर सिंह पर एकाएक इनकी भाहें तन जाती है.
खास लोगों के बिगरने और फिर बिगर कर ना सुधरने की कुछ खास वजहें हो सकती है. हालाँकि इनमें से बहुत अपने आप को खास बनाने और दिखाने के चक्कर में बिगर जाते हैं, पर होते ये मूर्ख ही हैं. पर आम लोग संख्या और तजुर्बा में अधिक होने के बाद भी इन खास मूर्खों के पीछे-पीछे क्यों जाते हैं.
आम लोगों ने बस फिल्म देखी, अच्छी लगी या नहीं लगी टिकट के पैसे या स्ट्रीमिंग वेबसाइट का सुब्स्क्रिप्सन चार्ज देना है, उसके बाद बस अब और नहीं. समय नहीं है भैया. इतना भी समय नहीं कि फेसबुक पर लिख दूँ कि मणिकर्णिका देखी अच्छी लगी. ये कैसे? यह तो राजीव मसंद कर ही देता, उससे भी आगे काफ़ी कुछ कर देता है. इतना कि कोई फिल्म बिगरते-बिगरते संभल जाये और कोई संभल कर भी चौपट हो जाये. पर आम लोगों को वह कारण ढूँढना होगा कि राजीव मसंद ने ताशकंत फाइल्स और मेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर को रिव्यु क्यूँ नहीं किया?
और जब तक संतोषजनक जवाब नहीं मिल जाए, देखी गयी फिल्म के बारे में एक लाइन ही सही, फेसबुक-व्ह्त्सप्प पर लिखिए. शायद आपका एक दो-लाइन भारतीय मनोरंजन उद्योग को विदेशी गिरफ़्त में जाने से बचा ले.
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