सिसकती न्यायपालिका
बीते
दिनों केंद्र सरकार ने मध्य-प्रदेश
उच्च न्यायालय के मुख्यन्यायाधीश
पद के लिए ए ए कुरैशी का नाम
ख़ारिज कर दिया,
जिसे
भारतीय मुख्यन्यायधीश के
नेतृत्व वाले कोलेजियम ने
अपनी तरफ से भेजा था.
न्यायपालिका
और विधायिका का यह टकराव नया
तो नहीं है,
पर जब
दूसरी बार सरकार बनाने के बाद
माननीय कानून मंत्री ने खुले
तौर पर कहा कि न्यायपालिका
में विधायिका भी हिस्सेदार
है,
तो संभव
है कि भविष्य में सरकार और
न्यायपालिका के बीच और भी
टकराव देखने को मिले.
अपने
संकुचित रवैये,
लेट-लतीफी
और विविधता की कमी के कारण
न्यायपालिका की आलोचना होती
रही है.
आजादी
के इतने वर्ष बाद भी न्यायपालिका
सामाजिक न्याय के सिधान्तों
को अपने ऊपर लागू करने में
नाकाम रही है,
यही कारण
है कि देश के अधिकतर उच्च
न्यायालयों में एक भी न्यायधीश
पिछड़े या अति-पिछड़े
तबके का नहीं हैं.
उच्च
न्यायालयों के न्यायधिशों
के लिए पूर्णरूप से कोलेजियम
प्रणाली पर निर्भर न्यायपालिका,
कब तक
संविधान में दिए गये सामाजिक
न्याय के प्रावधानों से मुंह
मोड़ती रहेगी?
पिछड़े
समाज का बुद्धिजीवी वर्ग इन
बातों को समझ रहा है,
इसलिए
पिछले वर्ष जब उच्चतम न्यायालय
ने अनुसूचित जाति-जनजाति
अत्याचार कानून में बदलाव
किया,
तो उसकी
आलोचना 'ब्राह्मणपालिका'
कह कर की
गयी.
दरअसल
देश की न्यायपालिका का प्रतिबिम्ब
कुछ ऐसा बन गया है कि आम आदमी
कोर्ट-कचहरी
के नाम पर सिसक जाता है.
इस सब
के वाबजूद नयायपालिका अपने
ऊपर किसी प्रकार का हस्तक्षेप
नहीं चाहती,
यही कारण
रहा कि 2015
में केंद्र
सरकार ने राष्ट्रिय न्यायिक
न्युक्ति आयोग का प्रस्ताव
दिया तो न्यायपालिका ने इसे
अपने ऊपर हस्तक्षेप मानते
हुए निरस्त कर दिया.
इसके
अलावा कोर्ट को मामले की प्रकृति
के अनुसार उसके निपटारे और
फैसले में भी समानता लाना
चाहिए.
कम से
कम सर्वोच्च न्यायालय तो अपने
हिस्से के मामलों में ऐसा कर
ही सकती है.
अभी हाल
ही में बंगाल की ममता गुप्ता
और उत्तर प्रदेश में प्रशांत
कनोजिया के एक जैसे मामले में
दो अलग-अलग
फैसले सुनाये.
देश के
आम जनमानष न्यायपालिका में
अपेक्षित बदलाव के लिए सड़क
पर ना उतरे,
इसके लिए
आवश्यक है कि न्यायपालिका
खुद अपनी कमज़ोरियों और खामियों
पर विचार कर उसे दूर करे.
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