ईमारत में आये बदलाव को शैक्षिक बदलाव का नाम दे रहे केजरीवाल..!!

केजरीवाल जी ने दिल्ली के स्कूलों का बेहतर या उससे भी अच्छा किया. कम से कम मिडिया में तो ऐसी ही चर्चा है. इसके लिए आतिशी मार्लोन को खूब श्रेय जाता है. पर ये आधी तस्वीर है. ठीक वैसे ही जैसे बिहार में प्राइमेरी और सेकेंडरी स्कूलों की दशा तो सुधरी पर उच्च शिक्षा का दयनीय हालत जस के तस बना हुआ है.
दिल्ली के सरकारी स्कूलों का पहला सच जो विचलित करने वाला है, वह है वहां के स्कूलों में मैथ और साइंस का ना पढ़ाना. वहां के अधिकांश स्कूलों में मैथ और साइंस नहीं पढ़ाने के कारण भी परिणाम अच्छे आते हैं जिसे केजरीवाल खूब प्रचारित करते हैं.
दूसरा बड़ा प्रचार जो अरविन्द करते हैं वो है, शिक्षा माफिया पर लगाम का. आपको पता होगा कि मान्यता प्राप्त स्कूलों के अलावा, कुछ ऐसे छोटे स्कुल भी होते हैं जो कम फ़ीस लेकर बच्चों को पढ़ाते हैं. ऐसे भी 9वीं और 11वीं में ही मान्यता प्राप्त स्कूलों में पढने की नितांत आवश्यकता होती हैं. और फिर स्कुल मान्यता प्राप्त हो या नहीं इस बात से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है कि स्कुल का मालिक शिक्षा माफिया होगा या नहीं. केजरीवाल ने माफिया से लड़ने के नाम पर इन छोटे और कम फ़ीस वाले स्कूलों को बंद करवा दिया.  इस तरह निम्न मध्यम वर्गीय परिवार को जबरदस्ती अपने बच्चों को सरकारी स्कुल में भेजना पड़ता है, जबकि वो कम फ़ीस वाले स्कुल को अफोर्ड कर सकते हैं.
लेकिन धनी लोगों के बच्चे प्राइवेट स्कुल ही जा रहे, खुद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और आतिशी मार्लोना के बेटे-भतीजे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं.

इस सब को छोड़ भी दें तो रिजल्ट का क्या? ''अशुद्ध आकड़ेबाजी'' 

दसवीं और बारहवीं परीक्षा के रिजल्ट में कोई कोई बदलाव नहीं आया.
वाया - गेट्टी इमेज 

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इसके उलट, आम आदमी पार्टी की सरकार ने 'चुनौती' नाम का एक प्रोग्राम चलाया और इसके अंतर्गत जो छात्र नौवीं में फ़ैल हुए उन्हें दशवीं के लिए प्रोमोट कर दिया गया .इसके बाद सरकार ने सभी स्कूलों के कमजोर छात्रों को चिन्हित किया(जिसमें फ़ैल होकर प्रोमोट किये गये छात्र भी थे), और उनको 'पत्राचार विद्यालय' मतलब दूरस्थ शिक्षा में नामांकित कर दिया.
ऐसे कमजोर छात्रों की संख्या 60 हजार से ऊपर थी. सरकार का कहना है कि इन छात्रों पर विशेष ध्यान दिया गया. लेकिन जब रिजल्ट आये तो सिर्फ 2 प्रतिशत छात्र ही परीक्षा में उतीर्ण हो पाए, वो भी तब जब मैथ का अंक नहीं जोड़ा गया. अब इन फ़ैल छत्रों के रिजल्ट को सरकारी स्कुल के रिजल्ट के साथ जोड़ा नहीं गया तो जाहिर है कि रिजल्ट तो अच्छे दिखेंगें ही.


क्वालिटी एडुकेशन का नामों निशान नहीं, ऊपर से दुनियां भर की अनियमितता 



अव्वल तो, कोर्ट से लगातार फटकार के बावजूद 27 हजार शिक्षकों की बहाली के स्थान पर 9 हजार शिक्षकों की बहाली का विज्ञापन आया पर बहाल किये गये सिर्फ 4 हजार, जिनकी न्युक्ति प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुयी है. पर पूरी उम्मीद है कि अगले विधानसभा चुनाव से पहले हो जायेगी, जिससे केजरीवाल अपना पीठ थपथपा सकेंगें.

मिडिया मेनेजमेंट में लगे केजरीवाल की कलई तो भी खुली जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने भी अपनी रिपोर्ट  में कहा कि देश की राजधानी होने के वाबजूद, फंड रिलीज और शिक्षक नियुक्ति प्रक्रिया में लेट लतीफी के कारण दिल्ली, शिक्षा के अधिकार अधिनियम को ठीक से लागू नहीं कर पा रहा.


सवाल जस के तस बने हैं? जवाब भी एक ही है..!!

इसमें कोई दो राय नहीं है कि दिल्ली सरकार के पास सरकारी खजाने में हर वर्ष खूब पैसा आता. केजरीवाल कहते भी रहते हैं कि उन्हें केंद्र से पैसा नहीं चाहिए लेकिन केंद्र उन्हें काम करने दें. केजरीवाल पहले मुख्यमंत्री हुए हैं जिनकी केंद्र से टकराव होती रहती है. आम आदमी का वो टैग लाइन, '' वो परेशान करते रहे हम काम करते रहे'',  को कौन भूल सकता है. वैसे भी राज्य का प्रति व्यक्ति आय, राष्ट्रिय प्रति व्यक्ति आय के तिगुना है.

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वाया - यूट्यूब 

ये भी सच है कि सरकार अपने एक स्टूडेंट पर लगभग 55 हजार खर्च करती है. जो कि उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों से काफी अधिक है. इस सब के बावजूद शत-प्रतिशत तो छोड़िये, आकड़ों के साथ खिलवाड़ करने के बाद भी, दिल्ली के स्कूलों का रिजल्ट केन्द्रीय विद्यालयों जितना अच्छा नहीं हो पाता. जबकि केन्द्रीय विद्यालय अपने एक स्टूडेंट पर लगभग 32 हजार खर्च करता है. 

तब प्रश्न उठता है कि इतना पैसा जाता कहाँ है ?

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पहले का क्लास रूप 
एक और शायद सिर्फ एक ही ईमानदार जवाब हो सकता है. फण्ड का अधिकतर हिस्सा क्वालिटी पर नहीं बल्कि इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च हो रहा. 

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आप सरकार के प्रयास के बाद 
एक तरफ जहाँ बड़े प्राइवेट स्कुलों की इमारतें आकर्षक होती हैं, क्या वहीँ कमजोर इन्फ्रास्ट्रक्चर, सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों के मन में हिन भावना पैदा करेगी? आपका जवाब जो भी हो. पर पहले के दिल्ली के सरकारी स्कूलों का इन्फ्रास्ट्रक्चर और अब के केन्द्रीय विद्यालयों के इन्फ्रास्ट्रक्चर में बहुत अधिक अंतर नहीं था. भले ही इन्फ्रास्ट्रक्चर के मामले में दिल्ली का सरकारी स्कुल, बड़े प्राइवेट स्कूलों के टक्कर का हो गया है. पर क्या स्कुल की बेंच, कुर्सी और बिल्डिंग से ही पढाई होती है?
अब भी केन्द्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय का इन्फ्रास्ट्रक्चर औसत दर्जे का ही है, पर इन स्कूलों में क्वालिटी एडुकेशन निश्चित हो पाया है तो उसका कारण प्लानिंग, अच्छे शिक्षक, बहुमुखी विकास पर जोड़ आदि ही है, ना कि इन्फ्रास्ट्रक्चर.

और भी कहीं दिल्ली सरकार थौक में पैसे खर्च कर रही है तो वो है विज्ञापन और मिडिया प्रबंधन, जिसके कारण चमकती हुई स्कुल बिल्डिंग को देख कर लोग भौचक्के हो जाते हैं, और कुछ लोग राजनीतिक पसंद-नापसंद के कारण से उस पर विश्वास भी करते रहना चाहते हैं. विज्ञापन पर पहले की तुलना में चार गुना खर्च कर केजरीवाल अपने मंसूबों में सफल भी हो रहे .

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