One Nation One Election: A must for Good Governance(हिंदी में)

इस तथ्य को तो लाल और हरे चश्मे वाले मित्र भी इंकार नहीं कर सकते कि यदि एक साथ चुनाव हुए तो देश का काफ़ी पैसा तो बचेगा ही, साथ ही अधिकारीयों, सुरक्षाकर्मियों और चुनाव कर्मचारियों का समय भी बचेगा. इस समय और उर्जा को वो उस काम में लगा सकेंगें जिसके लिए उन्हें चुना गया है. फिर डीएम् हो या अध्यापक उन्हें अपना काम करने के अधिक अवसर प्राप्त होंगें.
पर इस सबसे भी महत्वपूर्ण है जानता का समय. जब बार-बार आचार संहिता लगने से सरकारी कार्यालयों का काम बाधित होता है तो इसके भुग्तभोगी आखिरकार जानता ही होती है. कई बार कुछ लोग विधानसभा चुनाव को अधिक महत्व देते हैं तो कुछ लोकसभा चुनाव को. ऐसे में वो किसी एक ही चुनाव में भाग लेते हैं. पर जब एक साथ चुनाव होगा तो ऐसे लोग दोनों ही चुनाव में एक ही समय पर शिरकत कर पायेंगें . जाहिर है कि वोट प्रतिशत बढेगा, और एक लोकतंत्र के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है.
हां, पर लाल और हरे चश्में वालों को यह लगता है कि यदि एक साथ चुनाव हुए तो जनता एक ही पैटर्न पर वोट करेगी. मतलब राज्य और केंद्र दोनों जगह एक ही पार्टी को वोट कर देगी. अब वो या तो जानता को मूर्ख समझ बैठे हैं या फिर उसका भला नहीं चाहते. अब उनको कौन बताये कि पंचायत चुनाव में जनता एक ही साथ 5 प्रतिनिधियों के लिए वोट करती है, क्या जानता उस वक्त कन्फ्यूज हो जाती है या वो एक ही पैटर्न पर वोट कर देती है? नहीं ना. कई बार मुखिया किसी खेमे का होता है सरपंच या पंचायत समिति किसी और खेमे का और फिर जिला पार्षद किसी और खेमे का. इसलिए बेहतर हो कि जनता को मूर्ख समझना बंद करें.
एक दिक्कत हो सकती है और उस पर बहस भी होनी चाहिए कि पंचायत चुनावों में प्रतिनिधियों के सिंबल में काफी अंतर होता है जबकि राजनितिक पार्टियाँ, विधानसभा और लोकसभा में एक ही सिंबल का उपयोग करती है. महोदय, इसका सीधा और सरल उपाय है. राजनितिक पार्टियाँ अपने घर से तो सिम्बल लेकर आती नहीं. सिंबल बांटता है, चुनाव आयोग. अब चुनाव आयोग राजनितिक पार्टियों को राज्य के लिए अलग और केंद्र के लिए अलग सिम्बल दे देगी. किस्सा ख़त्म.
फिर भी यदि किन्ही को लग रहा है कि जनता एक ही पैटर्न पर वोट करेगी, तो ऐसा डर अवश्य होना चाहिए. यह ना सिर्फ लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा बल्कि देश को विकास की सीढियों पर तेजी से आगे बढ़ने में भी सहायक होगा. क्योंकि राज्यों की सरकारों को डर बना रहेगा कि यदि वो जानता के उम्मीदों पर खड़े नहीं उतरते हैं तो चुनाव की आंधी में बह जायेंगें. पर यह डर एकतरफा नहीं होगा. कुछ ऐसा ही डर केंद्र को भी रहेगा की यदि उनका रिकोर्ड, राज्यों से अच्छा नहीं हुआ तो फलां राज्य से उसके एम्पी नहीं चुने जायेंगें. महोदय, यह डर तो होना चाहिए.
पर मैं मानता हूँ कि ये डर और लोजिक एक तरफ एवं जानता की बुद्धिमता और दूसरी तरफ एक तरफ. क्या 18 वर्ष से अधिक के मतदाता राज्यों और केंद्र के मुद्दों के बीच अंतर समझने में अक्षम होगें. यदि आप ऐसा समझ रहे तो माफ़ कीजियेगा, मुझे यह कहना होगा कि आप जानता को समझने में अक्षम हैं. फिर राज्य और केंद्र के लिए एक ही पार्टी का चुनाव करना कोई बुरी बात तो है नहीं.
मित्रों, उड़ीसा का विधानसभा चुनाव 2004 से ही लगातार लोकसभा चुनाव के साथ होता आ रहा है, पर वहां तो राज्य में दूसरी पार्टी की सरकार है. मैं और भी उदहारण देकर आपका समय नहीं लूँगा. पर एक तथ्य प्रस्तूत करूँगा कि बीते 20 वर्षों में जिन विधानसभाओं का चुनाव लोकसभा के साथ हुआ है उनमें से 70 फीसदी मर्तबा जानता ने केंद्र में अलग और राज्य में अलग सरकार बनाई है.
एक बात ये कही जाती है कि बीच में यदि किसी राज्य सरकार या केंद्र की सरकार अल्पमत में आ जाएगी तो फिर क्या होगा? माननीय प्रधानमंत्री ने इसका बेजोर सोलुसन बताया कि एक बार सभी राज्यों और केंद्र का एक बार चुनाव होंने के बाद भी यदि कोई एक या फिर उससे अधिक राज्यों की सरकार अप्ल्मत में आ जाती है तो उन सबका चुनाव ठीक मध्य, अर्थात ढाई वर्ष में होगा. बांकी समय राष्ट्रपति शासन. फिर प्रश्न उठता है की ऐसी सरकारों के कार्यकाल कितने दिनों का होगा. तो जनाब जब कोई विधायक या संसद समय से पहले इस्तीफा दे देते हैं या उनकी मृत्यु हो जाति है तो उस सीट पर चुने जाने वाले प्रतिनिधी का कार्यकाल बस अगले चुनाव तक ही होता है. यही उन सरकारों के साथ भी होगा. सिंपल.
महोदय शायराना अंदाज में ये कहना कि 'जब चुनाव आती है तो जानता के पेट में पुलाव जाती है', यह भले ही सुनने में दिलचस्प लगे पर असलियत कुछ और है. महोदय आज़ादी के 70 वर्ष बाद भी यदि
एक आदमी रोटी बोलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा भी आदमी है
जो न रोटी बोलता है
और न रोटी खाता है
यदि मैं पूछूँ कि वो तीसरा आदमी कौन है
तो इस सवाल पर हमारे देश की संसद मौन है.
कहने का सीधा मतलब यह है कि यदि अब भी हमारे देश में भूखे, नंगे और बीमार लोग हैं तो इसका समाधान बार- बार चुनाव कराने में तो कदापि नहीं. यदि इसी से समाधान होना होता तो अब तक हो चुका होता. ये बार-बार चुनी जाने वाली सरकारों के पालिसी परालाईसीस का नतीजा है और आप इसका हल बार-बार चुनाव कराने में ढूढ रहे हैं तो माफ़ कीजियेगा, आपके बेतुके सवालों का माकूल जवाब देने में कम से कम मैं तो अक्षम हूँ.
चुनावों के नजदीक आने के साथ ही और चुनाव के दरम्यान भी, अनचाहा और अनावश्यक खटास समाज में व्याप्त हो जाती है. एक साथ चुनाव हुए तो इनकी आवृति में कमी होना तो लाजिमी है.
और अंत में यही कहूँगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, शुरूआती तीन इलेक्शन तो इसी फोर्मुले पर हुआ था. पर समय बदला, वेबजः राष्ट्रपति शासन और हॉर्स ट्रेंडिंग के कारण, सिलसिला उसके बाद आगे नहीं बढ़ पाया. बदलते वक्त में भी कैसे हम एक बार फिर से उस सिलसिले को अंजाम दे सकें, इसके लिए मैंने कुछ उपाय आपके सामने रखे.
अंतिम बात कह कर अपनी बात को समाप्त करूँगा .
इण्डिया नीड्स वन कन्विक्शन .(India needs One Conviction)
वन नेशन ,(One Nation)
वन इलेक्सन. (One Election)
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