लिखावट बस ऐसे ही -2 (ठिठुरते लोकतंत्र के बहाने से)

Image result for writingप्रत्येक वर्ष 26 जनवरी और 15 अगस्त के दिन, हरिशंकर परसाई की व्यंगात्मक कृति 'ठिठुरता हुआ लोकतंत्र' प्रासंगिक हो उठती है. इसकी कुछ लाइनें टाइमलाइन के चक्कर खाने लगती. शंकर जी की यह कृति इंदिरा के ज़माने की मालूम होती है. यदि और स्पेस्फिक हुआ जाय तो यह 1978 या उसके बाद की लिखी मालूम होती है, जब कोंग्रेस टूट चुकी  थी. परसाई ने भी कोंग्रेस के टूटने का जिक्र किया है.

परसाई आसानी से ग़रीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार आदि को लपेटे में लेते हैं. शायद इमरजेंसी को भी.

साहित्यकार के लिए इससे अनूठा क्या होगा कि उसकी रचना लम्बे कालखंड के लिए अमर हो जाये और हर वर्ष किसी खास मौके पर तबियत से पढ़ा, सुना और लिखा जाय. दुसरे शब्दों में कहूँ तो कोपी-पेस्ट किया जाय. पर इस सबके बाद भी हमें देखना होगा कि क्या भारत को उतनी ही सिद्दत से अब भी 'ठिठुरता हुआ गणतन्त्र' कहना लाज़िमी होगा?

जब सीमित संसाधन और असीमित मानवसंसाधन के बावजूद भारत अब सबसे अधिक गरीबों वाला देश नहीं रहा. क्या यह सूर्य का छोटा कोना दिखने जैसा नहीं है? खास कर तब जब बीते चार वर्षों में 40 कड़ोर से अधिक लोगों को अत्यंत गरीबी से ऊपर लाया गया.

आज भारत विकास के लगभग सभी पैमानों पर सीढियाँ चढ़ रहा  है. फिर वो सड़क बनने की तीव्र गति हो, नदियों पर पुल बनाने का सिलसिला हो या हवाईअड्डे और बंदरगाह. भारत के बढ़ते कदम का प्रमाण, ग्लोबल एजिंसियों के द्वारा जारी किये गए इंडेक्स में भी मिलता है. फिर बात चाहे ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स की हो या इज ऑफ़ डूइंग बिसनेस हो, इलेक्ट्रिसिटी की पहुँच हो या सौर उर्जा में भारत का प्रदर्शन, भारत लगातार आगे बढ़ रहा है.

परसाई के शब्दों में कहें तो सूर्य का कोना दिखने लगा है. व्यंग्य, किये जाने वाले आलोचना को धार  देता है पर इसका ओवरडोज मामले की गंभीरता को कम भी करता है. ऐसे में परसाई की विचारधारा के बारे में जानना दिलचस्प हो जाता है क्योंकि एक तरफ जब देश में आशा का माहौल है तो दूसरी तरफ कथित सेकुलर और बुद्धिजीवी निराशा के बादल की कामना करने में अपनी सारी  उर्जा लगा देते हैं.

परसाई साम्यवाद से प्रभावित थे और उनका मानना था कि साम्यवाद के माध्यम से सभी दुखों को दूर किया जा सकता था. इसलिए परसाई और उनसे प्रभावित लोगों को सूर्य तब तक नहीं दिखता जब तक कि वो पूर्णत 'लाल' ना हो जाये. इसलिए 'ठिठुरते हुए लोकतंत्र' में तो उन्होंने कोंग्रेस, समाजवादी और यहाँ तक कि जनसंघ पर हमला किया पर कोम्यूनिस्टों को बख्स दिया.

पद्य और व्यंग्य की खास बात ये है कि अक्सर इसमें जो लिखा होता है, वो कहा नहीं जाता. मतलब, कहीं पे निगाहें कहीं पर निशाना. फिर भी परसाई ने कुछ बातें सीधे- सीधे कह डाली है. जैसे कि ठण्ड के कारण वो अपनी जेब से हाथ भी नहीं निकालते, फिर भी 26 जनवरी के दिन राजपथ पर लोग तालियाँ कैसे बजा रहे? क्या उद्घोषक झूठ बोलता है? इसे देखने के लिए मैंने राजपथ का परेड देखा, वाकई करतल ध्वनि की आवाज हर एक विशेष घटना पर अवश्य सुनाई दे रही थी.

हरिशंकर जी एक माने हुए साहित्यकार तो हैं ही, जाने- अनजाने में वो जिस विचारधारा से प्रभावित थे, वो भी वक्त के साथ अप्रचलित होते हुए भी गुमनाम नहीं हो पाया. ऐसे में एक तरफ हरिशंकर जी जेब से अपनी हाथ नहीं निकालते तो दूसरी तरफ आज 'वन्देमातरम' और 'राष्ट्रगान' पर खरे होने में भी लोगों के मुंह सिल जा रहे और पैर काँप उठते हैं. उनके पैरों को कांपना यदि सही भी हो, तो फिर वही लोग किस मुंह से उनपर सवाल उठाते हैं जिन्होंने गाँधी के पोस्टर पर गोलियां चलाई. क्या पोस्टर पर गोली चलाना वाकई अपराध है?
नहीं ना. हाँ नागरिक होने के नाते, हमसे यह उम्मीद की जाती है कि हम राष्ट्रिय चिन्हों और प्रतीकों को सम्मान करें.  पर इन कथित बुधिजिवियों के ही अनुसार, इस मामले में कोई जबरदस्ती नहीं की जा सकती. जैसा आम तौर नेशनल एंथम पर खड़े होने के लिए किया जाता है. यदि जबरदस्ती नहीं है, तो फिर किसी पर गाँधी को अहिंसक, देशभक्त, राष्ट्रपिता आदि मान लेने के नागरिक कर्तव्य को कैसे थोपा जा सकता है?

इन्फेरियोरिटी काम्प्लेक्स से ग्रसित, परसाई बताते हैं कि 15 अगस्त, भरी बरसात में अंग्रेज हमें स्वतंत्र कर चले गए. परसाई ने सच ही कहा है हर बार स्वंत्रता  दिवस में हलकी फुलकी बारिश हो ही जाती है, जो अस्थायी गर्मी और उमस दे जाती है. पर हमारे यहाँ तो मुहूर्त के दिन होने वाली बरसात को शुभ माना जाता है. पर हरिसंकर जी बजाय इस ओर ध्यान दिए अपनी बात कहते चले जाते हैं. वैसे भी अंग्रेजों ने बारिश के कारण 15 अगस्त को स्वतंत्रता नहीं दी थी. कारण था जापान. दरअसल हुआ यह था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 6 अगस्त 1945 को अमेरिका  ने जापान के एक द्वीप, हिरोशिमा पर अटॉमिक हमला किया. ऐसा ही दूसरा हमला फिर 9 अगस्त 1945 के दिन जापान के दुसरे द्वीप, नागासाकी पर किया गया. और फिर जापान ने 15 अगस्त 1945 के दिन, अमेरिका की परतंत्रता को स्वीकार किया. इस तरह द्वितीय विश्वयुद्ध का भी अंत हुआ. आजाद हिन्द फ़ौज के कारण जापान उस वक्त भारत का जिगरी दोस्त हुआ करता था. इसलिए 15 अगस्त 1947 के दिन अंग्रेजों ने भारत को आजाद कर दिया, जिससे एक तरफ जिस  दिन भारत अपना स्वतंत्रता दिवस मनायेगा तो दूसरी  तरफ उसका मित्र देश जापान परतंत्रता के शोक में डूबा होगा. आज भी भारत में जब इन्देपेंडेंस दे मनाया जाता है तो जापान, अपनी हार और गुलामी का शोक मनाता है.

पर 26 जनवरी, जिस दिन परसाई और उनके जैसे बुद्धिजीवी ठण्ड के कारण अपनी जेब से हाथ नहीं निकाल पाते, वो भारत के द्वारा खुद का चयन किया हुआ दिवस है. पर परसाई इससे भी दुखी  हो जाते हैं. परसाई को चाहिए था कि कोई तिथी बता दें जिसमें देश के किसी भाग में किसी प्रकार का मौसमी चुहल  ना  हो.

परसाई का 'ठिठुरता हुआ लोकतंत्र' पढ़ें, और पता करें कि क्या कारण है जो यह आज भी प्रचलित है, या फिर वेबजह  कुछ लोगों द्वारा उसके पंक्तियों को अब भी ज्यों के त्यों छाप दिया जाता है. परसाई  की और भी पोर्स्मार्टम संभव है पर वो मैं आपके हिस्से में छोड़ता हूँ. इतना जरुर कहूँगा की हरिशंकर जी भले ही उच्चतम दर्जे के साहित्यकार रहे हों, पर उनका राष्ट्रनिर्माण में क्या योगदान था, इसका उत्तर खोजना होगा.

क्या उन्होंने भारत की अखंडता को मजबूत किया, या फिर उनकी रचनाएँ अलगाववाद को बढ़ावा देती है. 'ठिठुरता हुआ लोकतंत्र' आधार पर मैं अब भी परसाई के बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकालूँगा.



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