लिखावट बस ऐसे ही - 1
मिशेल क्रिश्चेन ने कहा कि इतालियन लेडी ने उसे एक्सप्लेन किया कैसे उनका बेटा भारत का प्रधानमंत्री बनने जा रहा है . अब 24 घंटे होते-होते मिडिया सोनिया-राहुल के लिए भावनात्मक आंसू बहाना शुरू करेगी. कोई एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट पर ऊँगली उठाएगा. रवीश कुमार राफेल को याद करेंगें. द वायर बताएगा कि कैसे राष्ट्रवाद का बोगस इस्तेमाल हो रहा है .

चलो मान लो कि ये सब बिके हुए हैं. पर इस सब के बीच आप उनलोगों से एक शब्द नहीं सुनेगें जो मंजुली के लिए घरयाली आंसू बहा रहे थे. इस गठबंधन को क्या नाम दूँ ?
महिलाओं के खिलाफ कोई भी शोषणकारी रवैया कभी भी क्षम्य नहीं हो सकता, पर इसका राजनीतिकरण, इसे जाति और धर्म के चश्मे से देख-कर क्या महिलाओं का भला हो सकता है. उदहारण के लिए देश ने इस वर्ष कठुआ की घटना को जाना, जिसमें भुग्तभोगी अशिफा थी. इस घटना का खूब राजनीतिकरण हुआ. परिणाम क्या निकला?
आपने #मीटू देखा, जिसका राजनीतिकरण हुआ पर परिणाम...? ऐसे मामले जिसका सम्बन्ध महिलाओं की सशक्तिकरण से हो, इनका राजनीतिकरण, समाज को नुकसान पहुंचाता है. क्योंकि समाज का हर वर्ग इसके विरोध में एक साथ नहीं आ पाता . हलांकि यह भी सर्वव्यापी सत्य तो नहीं, पर इसके दूरगामी परिणाम न के बराबर ही होते हैं.
ऐसे मामलों के परिणाम जेसिका हत्याकांड और निर्भया की घटना की तरह व्यापक नहीं हो पाते. जिसने वक्त आने पर कानून में ही परिवर्तन ला दिया .
अब मंजुली हत्या को ही लें . जबतक इसके खिलाफ बोलने वालों को यह पता था कि कुकर्म किसी उच्च जाति के लड़के ने किया है तब तक सरकार, भाजपा यहाँ तक कि संघ को कठघरे में खड़ा करते रहे. पर असलियत ये थी कि मंजुली के चचेरे भाई ने ही कुकर्म किया था. अब वो चुप हैं जो पहले बोल रहे थे पर वो बोल रहे जो अबतक चुप थे.
इसी तरह #मीटू में भी जब तक बात नाना पाटेकर, विवेक अग्निहोत्री और एम् जे अकबर के खिलाफ होती रही, आन्दोलन अपने उफान पर रहा पर जैसे ही विनोद दुआ और वायर के ही दुसरे कर्मचारियों पर बात आई, आन्दोलन कमजोर होता गया. आन्दोलन कुछ अच्छा रिजल्ट क्या देती, उसके उलट अकबर पर आरोप लगाने वाली, अब कोर्ट का चक्कर लगा रही और विनोद दुआ को दूसरी नौकरी भी मिल गयी अब तो वो घर बैठे-बैठे ही कार्यक्रम कर लेते हैं.
यहाँ, दोष दोनों ही धरों का है, पहली जो विरोध करती है और दूसरी जो चुप रहती है या फिर पहली जो जाति-धर्म-राजनीति से प्रेरित होकर पहले तो विरोध करती है और बाद में चुप हो जाती है. पर गलती की शुरुआत किसने की ये अधिक महत्वपूर्ण है. सलेक्टिव विरोध का कल्चर तो काफी पहले से था पर इतना व्यापक लेकिन बेअसर तब हुआ जब देश में कथित रूप से 'असहिष्णुता' बढ़ गयी.
पहले जब उत्तर प्रदेश के दादरी में अखलाख के मामले में भाजपा को जिम्मेदार ठहराया गया, मामले को इतना बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया गया कि बात वोट बैंक तक आ गयी. फिर रोहित बेमुला. यह क्रम बदस्तूर जारी रही.ऐसे मामलों को, बिना प्रमाण के, शक के आधार पर, सस्ती राजनीति साधने के लिए बेमतलब तूल दिया जाता है. जो अनचाहे रूप से समाज में पहले से उतपन्न खाई को और भी गहरी और लम्बी-चौरी करती चली जाती है. हमारे लिए यह खाई भले ही अनचाहा हो पर 'कुछ' लोगों का एजेंडा ही यही रहा है.
कुछ लोगों से मतलब है, देश को बाँटने वाली शक्तियां. यह कार्य पहले कोम्युनिस्ट पार्टियों और मुस्लिम कट्टरपंथियों तक ही सीमित थी . जब मार्क्सवादी कुम्मुनिस्ट पार्टी , भारतीय कुम्मुनिस्ट पार्टी को अकादमिक बातचीत में राष्ट्रवादी कहकर चिढ़ाती थी. ये कुम्मुनिस्ट पार्टियाँ बंटवारे की भावना से इस तरह ग्रसित हैं कि इनकी खुद की अब तक सैकड़ों बंटवारे हो चुके हैं. पर अब स्थिति बदल गयी है. ये गुट राजनितिक रूप से भले ही हासिये पर हो पर देश को बाँटने वाली मानसिकता को इन्होने बखूबी फैलाया है.
उदहारण के लिए, कुछ लोग कांग्रेस का विरोध तब तो करते हैं जब वो कोई देशविरोधी अजेंडे में शामिल हो, जैसे कि सेना और सर्जिकल स्ट्राइक के मामले में , पर अपनी धर्मिक पहचान के कारण उन्हें कोंग्रेस या ऐसी ही किसी दूसरी पार्टियों के शरण में जाना पड़ता है. इसी तरह कुछ लोग यही रवैया अपनी जातिय पहचान के कारण अपनाते हैं.
कुछ लोग मिडिया के गलत सूचनाओं में फंस कर देश-विरोधी अजेंडे का साथ दे जाते हैं. जैसे कि राफेल डील. फिर भी राफेल पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी कुछ भी कहना जल्दीबाजी हो सकता है. पर जब केरल में आई बाढ़ के बाद दुबई से मिले राहत रकम को भारत सरकार द्वारा को लौटाने की ख़बर आई तो उसने तो कुलमिला कर भारत का ही छीछालेदर किया. एक तो ख़बर झूठी थी और ऊपर से रकम . ऐसा लगा की भारत को दुबई के भीख की अत्यंत जरुरत है. महज 700 कड़ोर के लिए, अपनी राजीनीतिक विरोध के कारण देश को बदनाम किया. यही लोग बाद में पुछेंगें कि भाजपा का विरोध देश का विरोध कैसे है? अभी हाल ही में केन्द्र सरकार ने केरल को 3 हजार कड़ोर की राशी बाढ़ से उबरने के लिए दिया.
अबेडकर ने कहा था कि हमें सबसे पहले और सबसे अंत में भारतीय होना चाहिए. सबसे पहले और अंत में छोड़िये यदि सिर्फ सबसे पहले भी कोई भारतीय हो जाये तो भी देश को नुक्सान होने से बचाया जा सकेगा.
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